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श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। २९ योग्य है इस ज्ञान रूप परिणमन है तथा चारित्रगुणका मंदकपायके उदयसे शुभ रागरूप परिणमन है इसीलिये इस समय आत्माके सराग नारित्र कहा जाता है तथा आत्माको सराग कहते हैं और यह मात्मा इस समय पुण्यकर्मको बांध स्वर्गादि गतिका पात्र होता है। यहां आचार्यका यही अभिप्राय है कि वीतराग चारित्रमई मात्मा की उपादेय है क्योंकि इस स्वात्मानुभव रूप वीतराग चारित्रसे वर्तमानमें भी अतीन्द्रिय सुखका लाम होता है तथा आगामी मोक्ष सुखकी प्राप्ति होती है । इस तरह वीतराग चारित्रको मुख्यतासे संक्षेपमें फथन करते हुए दूसरे स्थनमें तीन गाथाएं पूर्ण हुई ॥८॥
उत्थानिका-आगे यह उपदेश करते हैं कि शुभ, अशुभ तथा शुल ऐसे तीन प्रकारके प्रयोगसे परिणमन करता हुआ खात्मा शुभ, अशुभ तथा शुद्ध उपयोग स्वरूप होता है। जीवो परिणमादि जदा, सुहेण अहेण वा सुहो
अनुहो। सुषेण तदा सुन्डो, हदि हि परिणामसभावो ॥२॥
जेवः परिणमति यदा शुभेनाशभेन वा शुभोऽशुभः । शुद्धेन तदा शुद्धो भवति हि परिणामस्वभावः ॥ ९ ॥
सामान्पार्थ-जब यह परिणमन स्वभावी आत्मा शुभ भावसे परिणमन करता है तब शुभ, जब अशुभ भावसे परिणमन करता है तब अशुभ और जब शुद्ध भावसे परिणमन करता है तव शुद्ध होता है ॥९॥
अन्श्य सहित विशेषार्थ-(जदा) जब (परिणाम