Book Title: Pratyekbuddh Charitram
Author(s): Jain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publisher: Jain Dharm Vidya Prasarak Varg
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________________ जो चरित्रं 307 मन्यदालोक्य मोहितः // कुमारं तादृशं शूरं / जाननादत्तवान् पुनः // 5 // नृपस्तामन्यः / / दाकार्य / सानुरागमना जगौ // शुन्नेऽतिसुत्लगस्वामि-त्वेन मामुररीकुरु // 6 // यावत् त्रिविकमो द्रव्यं / दत्ते ते प्रतिवासरं / ततः शतगुणं नित्यं / नूनं दास्याम्यहं धनं // 7 // प्रचुरद्रव्यदातैव / प्रायशः प्राणिनां प्रियः // विशेषेण पुनः स्त्रीणां / वेश्यानां तु विशेषतः // 7 // एनं नरं परित्यज्य / मां प्रपद्य स्वनायकं // वेश्याया अप्यवश्यं ते / वश्यं राज्यमिदं ततः॥ 7 // न बलाजायते स्नेह / एतदर्थ वदाम्यदः // राझो हि निजदेशस्थं / विवशं किमु वर्तते // 17 // अथो रतिविलासोचे / सुखार्थ धनसंचयः // सुखं यदेगुणिनः संगा-न्न हि तझनसंचयात् // 11 // धनेन प्रिय इत्येत-दलीकं वचनं ननु // किं धनं चक्रवाक्य तु / चक्रवाको ददात्यहो // 12 // पतिव्रतास्मि संजाता / वेश्याकुलगताप्यहं // दरिजकुलसंजूतैः / श्रीमद्भिः किं न भूयते // 13 // कलाबल विशालेऽस्मिन् / गुणग्राममनोहरे // सति पत्यौ ममावश्यं / वश्यमेवाखिलं जगत् // 14 // आदातुं का समर्थः स्या-दस्मिन् जाग्रति मां बलात् // शेषराज शिरोरत्नं / गृहीतुं न शक्यते // 15 // इति प्रत्युत्तरैः सारै-'पं कृत्वा / TalathasunM Jun Gun Aaradhak Trust

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