Book Title: Pratyekbuddh Charitram
Author(s): Jain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publisher: Jain Dharm Vidya Prasarak Varg
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________________ | अन्योन्यास्फासनाऽनावाद् / घोरो रावो न्यवर्तत॥श्रुत्वेति नमिराजेन / निर्व्याजेन विचिंतितं / प्रत्येक // 13 // मिलिता वलयावख्य / आस्फलंति परस्परं // फुःखदाश्च जवंत्येवं / संसारे सर्वजंतवः // 14 // वलयस्य यथैकस्य / दुःखदत्वं न कस्यचित् // जीवस्यापि तथैव स्या-निःसंगश्चेदयं नवेत् // 15 // यथा यथा स्यात्प्रचुरः परिग्रह-स्तथा परीवारजरस्य संग्रहः ॥लोनोऽजिमानः कलहस्तथा तथा / तथा च दुःखं परमं शरीरिणां // 16 // संसारसंगः परिमुच्यते यदा / वैराग्यरंगः परिवर्धते तदा // तथा च पापारिपरिदयः क्षणात् / दीणे च तस्मिन् सुखमयं नृणां // 17 // किं बहुना यदि कथमपि / रोगोऽयं मे निवर्तते देहात् // तदिदं विहाय राज्यं / प्रव्रज्यामाश्रये जैनी // 17 // इति राज्ञः शुजध्यान-सुधापाननिराकृतः // // उत्ततार ज्वरो दुःख-करो विषजरोपमः // 15 // चिरादातसमाधान-श्चंदनलिप्तविः / / अहः ॥षएमासांते तदा रात्रौ / निजामाप नरोत्तमः // 27 // तस्यां विनातकल्पायां। रजन्यां नरनायकः // प्रासादशिखरारूढ-मैक्षतात्मानमुज्ज्वलं // 31 // इति स्वप्नं समालो. क्य / जजागार जयारवैः // वर्यतूर्यनिनादैश्च / प्रातर्नमिनरेश्वरः // // विचारयंश्चारुबु / P.P. Ac. Gunrainasur M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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