Book Title: Pratyekbuddh Charitram
Author(s): Jain Dharm Vidya Prasarak Varg
Publisher: Jain Dharm Vidya Prasarak Varg

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Page 353
________________ 353 शक्तावुपेणे // दयामूलोऽपि धर्मस्ते / वीणः क्षत्रियसत्तम // 7 // नमिः-श्मे नाम स्व- / / का लोका / वैरिणोऽपि न केचन // समता मे समस्तेषु / ममतामुक्तचेतसः // // त. स्केषु' करुणां कुर्वे / हन्मि कान् हेतुवर्जितः // इंजः--सकृपोऽनेकलोकनान् / वैरिणोऽमून् विनाशय / ए॥ अनल्पप्राणिरदा स्या--द्यस्मिन्नरपे विनाशिते // पापं न जायते किंचिं -तहिनाशविधायिनः // // नमिः-एकेंद्रियादिजीवाना-मनंतानां विनाशकाः // संत्यमी जंतवः सर्वे। हंतव्यास्तर्हि तेऽखिलाः // 7 // तस्माच्चैत्यादि विध्वंस-विधायिज़नवर्जिते // प्राणिवर्गे समग्रेऽपि / कृपा कार्या विचरणैः // 2 // इंद्रः-अधुना संपदा प्राज्यं / राज्यं त्यजसि देखया // पश्चात्तापं पुनः पश्चा-सुखाकांक्षी करिष्यसि // 3 // यतश्चिरं श्रितवाय -स्तंपनातपमिछति // तप्तकायः पुनश्वाया-मेवाश्रायितुमीहते // 7 // नमिः-दुःखगर्जिततवैराग्या-नवेदेवं चलं मनः // ज्ञानगर्जितवैराग्यं / चिरं संपद्यते स्थिरं // 5 // तन्मे जामतों विप्र / मनागपि मनो न हि // जोगिनोगोपमान् लोगान् / रोगानिव समीहते // // // इंड:-दीनदुःस्थितसाधुन्यो / दिशन् दानं यथेप्सितं // गृहिधर्म समाराध्य / ख. - Jun Gun Aaradhak.Trust

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