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मुख्य रूप से दो घटनाएँ हैं – सेतुबंध और रावणवध । अतः इसके दोनों ही नाम प्रचलित हैं, किन्तु सेतु बनाने के प्रंसग को कवि ने जिस उत्साह व विस्तार से वर्णित किया है, उसे देखते हुए इसका सेतुबंध नाम ही अधिक सार्थक लगता है। रावणवध इस काव्य का फल कहा जा सकता
है।
महाकाव्य के लक्षणों की दृष्टि से सेतुबंध में एक सफल महाकाव्य के समस्त लक्षण यथा - सर्गबद्धता, वीर, श्रृंगार या शांत रस में से किसी एक रस की प्रधानता, इतिहासाश्रित-कथावस्तु, वर्णन-कौशल, अलंकार-चारुता आदि पूर्णरूप से विद्यमान हैं।
कथात्मक विकास एवं घटना-विन्यास की दृष्टि से सेतुबंध अद्वितीय काव्य है। सेतु निर्माण का लम्बा प्रसंग कथानक के विकास में बाधा उत्पन्न नहीं करता है, अपितु राम व रावण के बीच प्रारंभ होने वाले भयंकर युद्ध के लिए एक मानसिक पृष्ठभूमि तैयार कर देता है। कथोपकथन के माध्यम से कवि ने निराशा, पीड़ा, दीनता, हर्ष आदि अनेक मनोभावों की मार्मिक अभिव्यक्ति प्रस्तुत की है। सीता की कुशलता का समाचार लेकर आये हनुमान व राम का यह मूक संवाद दृष्टव्य है
दिट्ठ त्ति ण सद्दहि झीण त्ति सबाहमन्थरं णीससि । सोअइ तुमं तिरुण्णं पहुणा जिअइत्ति मारूई उवऊढो ।।(गा.1.38)
अर्थात् (सीता को) देखा है, ऐसा कहने पर प्रभु विश्वास नहीं करते हैं, (वह) शोक से क्षीण हो गई है, प्रभु ने वाष्पयुक्त मंथर निश्वास लिया, तुमको याद करती है। (सुनकर) प्रभु रोने लगे। वह जीवित है, (यह सुनकर) प्रभु ने हनुमान को गले लगा लिया।
सांस्कृतिक दृष्टि से भी यह महाकाव्य महत्त्वपूर्ण है। मंगलाचरण की प्रारम्भिक गाथाओं में अवतारवाद का पूर्ण विकास परिलक्षित होता है। यक्ष व नाग संस्कृति का भी इसमें वर्णन हुआ है। मैत्री–निर्वाह, कर्त्तव्य-पालन आदि सामाजिक मूल्यों की प्रतिष्ठापना कर कवि ने व्यक्ति के नैतिक जीवन को भी उठाने का प्रयास किया है। काव्यात्मक सौन्दर्य की दृष्टि से भी यह सर्वश्रेष्ठ काव्य है। श्लेष, रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा, विरोधाभास आदि अलंकारों की स्थान-स्थान पर नैसर्गिक उपस्थापना हुई है। प्रकृति चित्रण