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आदि प्रत्ययों का वर्णन है । इस ग्रन्थ में छंदों को समझाने हेतु हेमचन्द्र के छंदोनुशासन, श्री हर्ष की रत्नाक्ली नाटिका आदि के उदाहरण मिलते हैं।
प्राकृतपैंगलम्
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प्राकृतपैंगलम् छन्दशास्त्र का एक महत्त्वपूर्ण संग्रह ग्रन्थ है । इसके संग्रहकर्त्ता का नाम ज्ञात नहीं है । विभिन्न साक्ष्यों के आधार पर इसका रचनाकाल 13वीं - 14वीं शताब्दी के लगभग माना गया है। इस छंद-ग्रन्थ में पुरानी हिन्दी के आदिकालीन कवियों द्वारा प्रयुक्त वर्णिक व मात्रिक छंदों का विवेचन किया गया है। यह ग्रन्थ दो परिच्छेदों में विभक्त है । प्रथम परिच्छेद में मात्रिक छंदों का तथा द्वितीय परिच्छेद में वर्णवृत्तों का विवेचन है। इस छन्द ग्रन्थ में प्रयुक्त उदाहरण काव्य - तत्त्वों की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध हैं। इस ग्रन्थ में मेवाड़ के राजपूत राजा हम्मीर की वीरता का सुन्दर चित्रण है। यथा - गाहिणी छन्द में हम्मीर की वीरता का यह पद्य दृष्टव्य है
मुंचहि सुंदरि पाअं अप्पहि हसिऊण सुमुहि खग्गं मे । कप्पिअ मेच्छशरीरं पेच्छइ वअणाइँ तुम्ह धुअ हम्मीरो ।। (गा. 71 )
अर्थात्-युद्ध भूमि पर जाता हुआ हम्मीर अपनी पत्नी से कह रहा है - हे सुन्दरी ! पाँव छोड़ दो, हे सुमुखी! हँसकर मुझे तलवार दो । म्लेच्छों के शरीर को काटकर हम्मीर निःसंदेह तुम्हारे मुख के दर्शन करेगा ।
अवहट्ट का प्रयोग इस ग्रन्थ में बहुत मिलता है। मध्य - युगीन छंदशास्त्रियों ने इस ग्रन्थ की परम्परा का पूरा अनुकरण किया है।
इन प्रमुख छंद ग्रन्थों के अतिरिक्त प्राकृत के कुछ अन्य छंद-ग्रन्थों का भी उल्लेख मिलता है । नन्दिषेण कृत अजितशान्तिस्तव में प्रयुक्त 25 छंदों का विवेचन जिनप्रभ की टीका में छंदोलक्षण के अन्तर्गत मिलता है । कविदर्पण के टीकाकार ने अपनी टीका में छंदः कदली का उल्लेख किया है । इसके कर्त्ता का नाम ज्ञात नहीं है । वज्रसेनसूरि के शिष्य रत्नशेखरसूरि द्वारा विरचित छंदः कोश में 74 गाथाओं में अपभ्रंश के छंदों का विवेचन मिलता है ।
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