Book Title: Prakrit Sahitya ki Roop Rekha
Author(s): Tara Daga
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 158
________________ अलंकारशास्त्र जिस प्रकार भाषा को व्यवस्थित करने के लिए व्याकरण-ग्रन्थों तथा काव्य की सार्थकता के लिए छंद ग्रन्थों की आवश्यकता महसूस की गई उसी प्रकार काव्य के मर्म को समझने के लिए अलंकार-ग्रन्थों की रचना की गई। काव्य का स्वरूप, रस, गुण, दोष, रीति, अलंकार एवं काव्य-चमत्कार का निरूपण अलंकारशास्त्रों में ही पाया जाता है। अलंकारशास्त्रों के अर्वाचीन प्रणेताओं में भरत, भामह, दण्डी, वामन, रुद्रट, भोजराज, हेमचन्द्र आदि प्रमुख हैं। इनके द्वारा रचित प्रमुख अलंकारशास्त्रों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया जा रहा है। ये अलंकारशास्त्र संस्कृत भाषा में निबद्ध हैं, किन्तु इनमें लक्षणों को समझाने के लिए उदाहरण स्वरूप पद्य प्राकृत भाषा में दिये गये हैं। इन अलंकारशास्त्रों में उद्धृत प्राकृत गाथाओं पर प्रो. बी. एम. कुलकर्णी ने शोध कार्य किया है। प्रो. जगदीश चन्द्र जैन ने प्राकृतपुष्करिणी नामक ग्रन्थ में इन सब प्राकृत गाथाओं का संग्रह किया है। नाट्यशास्त्र ____ आचार्य भरत ने नाट्यशास्त्र (अ. 17, 1-5) में नाट्य में प्रयुक्त होने वाले काव्य के 36 लक्षण बताए हैं। इनमें से कुछ लक्षणों को दण्डी आदि प्राचीन आलंकारिकों ने अलंकार के रूप में स्वीकार किया है। धीरेधीरे ये लक्षण लुप्त होते गये। भूषण अथवा विभूषण नामक प्रथम लक्षण में अलंकारों और गुणों का समावेश हुआ। नाट्यशास्त्र में उपमा, रूपक, दीपक, यमक- ये चार अलंकार नाटक के अलंकार माने गये हैं। जैन सिद्धान्त ग्रन्थ प्राचीन जैन सिद्धान्त ग्रन्थों में व्याकरण के उल्लेखों के साथ-साथ काव्यरस, उपमा, उत्प्रेक्षा आदि विविध अलंकारों का प्रयोग हुआ है। वि.सं. की पाँचवी शताब्दी में रचित नन्दीसूत्र में काव्यरस का एवं स्वरपाहुड में 11 अलंकारों का उल्लेख है। अनुयोगद्वारसूत्र में नौ रसों का उल्लेख प्राप्त होता है। इस ग्रन्थ में सूत्र का लक्षण बताते हुए आर्यरक्षित ने कहा है कि सूत्र अलंकृत, अनुप्रासयुक्त और मधुर होना चाहिए।

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