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बहुत बड़े विद्वान माने जाते हैं। इनका समय ई. सन् की 7-8वीं शताब्दी के मध्य माना जाता है। अपने इस ग्रन्थ में उन्होंने काव्य की शोभा को बढ़ाने वाले अलंकारों का सुन्दर विवेचन प्रस्तुत किया है। प्रस्तुत ग्रन्थ में उन्होंने भाषा के संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और मिश्र ये चार भेद किये हैं। सूक्ति प्रधान होने के कारण महाराष्ट्री को उत्कृष्ट प्राकृत माना है। शौरसेनी, गौड़ी, लाटी एवं अन्य देशों में बोली जाने वाली भाषाओं को प्राकृत तथा गोप, चाण्डाल और शकार आदि द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं को अपभ्रंश कहा है। बृहत्कथा को भूत-भाषामयी और अद्भुत अर्थ वाली बताया है। काव्यालंकार
काव्यालंकार के रचयिता आचार्य रुद्रट हैं। इनका समय लगभग 9वीं शताब्दी माना गया है। इस ग्रन्थ में 16 अध्याय हैं। इन्होंने अपने ग्रन्थ काव्यालंकार में अलंकारशास्त्र के समस्त सिद्धान्तों, भाषा, रीति, रस, वृत्ति, अलंकार आदि का विस्तार से वर्णन किया है। अलंकारों का वर्णन इनके ग्रन्थ की विशेषता है। इस ग्रन्थ में रुद्रट ने अलंकारों के वर्गीकरण के लिए सैद्धान्तिक व्यवस्था की है। कवि ने भाषा के छ: भेद बताये हैं – प्राकृत, संस्कृत, मागधी, पैशाची, शौरसेनी व अपभ्रंश। इन छः भाषाओं के उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए उन्होंने संस्कृत-प्राकृत-मिश्रित गाथाओं की रचना की है। ध्वन्यालोक
ध्वन्यालोक के कर्ता आनंदवर्धन कश्मीर के राजा अवन्तिवर्मा के सभापति थे। इनका समय लगभग 9वीं शताब्दी का उत्तरार्ध माना गया है। इस ग्रन्थ में ध्वनि को ही काव्य की आत्मा स्वीकार किया गया है। इस ग्रन्थ पर अभिनवगुप्त ने टीका लिखी है। मूल ग्रन्थ व टीका दोनों में मिलाकर प्राकृत की लगभग 46 गाथाएँ प्राप्त होती हैं।
दशरूपक
दशरूपक के कर्ता धनंजय मालवा के परमारवंश के राजा मुंज के