Book Title: Prakrit Sahitya ki Roop Rekha
Author(s): Tara Daga
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 164
________________ सन्दर्भों में विशेष अभिव्यक्ति का माध्यम होते हैं। कोश से शब्दों के निश्चित अर्थ का बोध होता है। उदाहरण स्वरूप यदि कहा जाय कि 'मार को शंकर ने जलाया था तो हम कोश की सहायता से ही जान सकते हैं कि यहाँ 'मार' का अर्थ कामदेव होगा। इसी प्रकार क्षेत्र - विस्तार के कारण लोकभाषा के शब्दार्थों में आई विभिन्नताओं को दूर करने में भी कोश ग्रन्थ सहायक होते हैं। सही-सही अर्थ बोध के अतिरिक्त कोश ग्रन्थ भाषा - विज्ञान के अध्ययन में भी सहायक होते हैं। यही नहीं कोश ग्रन्थों में संकलित शब्दों व उनके अर्थों के माध्यम से किसी भी देश के सांस्कृतिक इतिहास को समझा जा सकता है। अतः प्रत्येक भाषा के विद्वानों द्वारा कोश का निर्माण अवश्य किया जाता है। प्राकृत भाषा के सुचारु अध्ययन हेतु विद्वानों द्वारा विभिन्न शब्दकोशों की रचना की गई। लेकिन विद्वानों द्वारा रचे गये इन कोश-ग्रन्थों का उद्गम स्थल प्राकृत आगम - साहित्य ही रहा है। आचारांग, सूत्रकृतांग आदि अंग ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर एकार्थक / पर्यायार्थक एवं निरुक्ति मूलक शब्दों का विनियोजन मिलता है। भगवतीसूत्र को तो प्राकृत का सर्वाधिक प्राचीन शब्दकोश कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस ग्रन्थ में जीव, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि शब्दों के अनेक पर्यायवाची शब्द मिलते हैं यथा जीव के पर्यायवाची में पाणे, भूए, जीवे, सत्ते, विष्णू, वेदे आदि का उल्लेख हुआ है । ज्ञाताधर्मकथा में भी एकार्थक शब्दों का अनेक स्थानों पर प्रयोग हुआ है। प्रश्नव्याकरण में अहिंसा के साठ पर्यायों के नाम बताये हैं। इसी प्रकार उपांग, निर्युक्ति, टीका एवं चूर्णि साहित्य में भी अनेक स्थलों पर पर्याय शब्दों का प्रयोग दृष्टिगोचर होता है। स्पष्ट है कि प्राकृत आगम साहित्य ही कोश - ग्रन्थों का उद्गम स्थल रहा है, जिसके आधार पर आगे चलकर आचार्यों द्वारा स्वतंत्र कोश-ग्रन्थों का प्रणयन किया गया है। यहाँ प्रमुख प्राकृत शब्द - कोशों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया जा रहा है । पाइयलच्छीनाममाला पाइयलच्छीनाममाला उपलब्ध प्राकृत कोश-ग्रन्थों में स्वतन्त्र रूप से लिखा गया सबसे प्राचीन कोश - ग्रन्थ है । कवि धनपाल ने वि.स. 1029 152

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