Book Title: Prakrit Sahitya ki Roop Rekha
Author(s): Tara Daga
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 155
________________ छंदशास्त्र जिस प्रकार भाषा को सार्थक बनाने के लिए व्याकरण की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार काव्य की सार्थकता के लिए छंद-प्रयोग अपेक्षित है। विषयगत मनोभावों के संचार के लिए तथा कविता में संतुलन बनाये रखने हेतु काव्य में छंद का व्यवहार किया जाता है। मनुष्य को मनुष्य के प्रति संवेदनशील बनाने का सबसे प्रमुख साधन छंद हैं । छंद, ताल, तुक व स्वर सम्पूर्ण मनुष्य को एक करते हैं तथा इसके आधार पर मनुष्य का भाव स्वाभाविक रूप से दूसरे तक पहुँच जाता है। स्पष्ट है कि छंद काव्य का अटूट अंग है। प्राकृत साहित्य में छन्द परम्परा का विकास न केवल स्वतंत्र रूप में हुआ, अपितु छंद विषयक प्राकृत की उपलब्धियाँ महत्त्वपूर्ण हैं। प्राकृत भाषा का सीधा सम्बन्ध लोक जीवन से था, अतः यहाँ नृत्य व संगीत के आधार पर छंदों का विकास हुआ। प्राकृत में ही सर्वप्रथम मात्रा-छन्दों की परम्परा का विकास हुआ। संस्कृत का आर्या छन्द प्राकृत के गाहा छन्द के समान है। प्राकृत साहित्य में प्रयुक्त हुए विभिन्न छंदों के आधार पर विद्वानों द्वारा महत्त्वपूर्ण छन्द ग्रन्थ लिखे गये हैं। प्रमुख छंद-ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। वृतजातिसमुच्चय इसके रचयिता विरहांक नामक कवि संस्कृत व प्राकृत भाषा के प्रकाण्ड पण्डित थे। इनका समय ई. सन् की छठी शताब्दी है। यह छंद-ग्रन्थ पद्यबद्ध रचना है। छ: नियमों (अध्यायों) में विभक्त इस ग्रन्थ में मात्रा छंद तथा वर्ण छंद पर विचार किया गया है। प्रथम नियम में प्राकृत के समस्त छंदों के नाम गिनाये हैं, जिन्हें आगे के नियम में समझाया है। तीसरे नियम में 52 प्रकार के द्विपदी छंदों का विवेचन है। चौथे नियम में 26 प्रकार के गाथा छंद तथा पाँचवें नियम में 50 प्रकार के संस्कृत के वर्ण छंदों का निरूपण किया गया है। छठे नियम में प्रस्तार, नष्ट, उद्दिष्ट आदि छ: प्रत्ययों का वर्णन है। स्वयंभूछंद स्वयंभूछंद के रचयिता अपभ्रंश के महाकवि स्वयंभू हैं। इनका समय लगभग 8-9वीं शताब्दी माना गया है। प्रस्तुत ग्रन्थ तेरह अध्यायों में K143>

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