Book Title: Prakrit Sahitya ki Roop Rekha
Author(s): Tara Daga
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 113
________________ लौकिक कथाएँ भी वर्णित हैं। यही कारण है कि यह ग्रन्थ कथा, चरित व पुराण तीनों ही विधाओं के तत्त्वों को अपने में समायोजित किये हुए है। सौ लम्भक वाले इस ग्रन्थ के कथानकों की सरसता में पाठक स्वाभाविक रूप से डूब जाता है। इस ग्रन्थ के दो खण्ड हैं। प्रथम खण्ड के रचयिता संघदासगणि हैं, जिन्होंने 29 लम्भकों की रचना की। द्वितीय खंड के रचयिता धर्मदासगणि हैं, जिन्होंने शेष 71 लम्भकों की रचना कर ग्रन्थ को विस्तार दिया। ये 71 लम्भक उन्होंने 18वें लम्भक की कथा प्रियंगुसुंदरी के साथ ही जोड़ दिये हैं। यह भाग वसुदेवहिण्डी का मध्यम खण्ड कहलाता है। इस ग्रन्थ के छः विभाग हैं – कथोत्पत्ति, पीठिका, मुख, प्रतिमुख, शरीर और उपसंहार | कथोत्पत्ति प्रकरण के अन्तर्गत 50 पृष्ठों का धम्मिलहिण्डी नाम का एक महत्त्वपूर्ण प्रकरण आया है, जिसमें धम्मिल सार्थवाह पुत्र की कथा का विस्तार से वर्णन हुआ है। यह प्राकृत कथा-साहित्य के विकास की दृष्टि से आधारभूत ग्रन्थ है। इसी ग्रन्थ के आधार पर आगे चलकर अनेक स्वतन्त्र कथा-ग्रन्थ लिखे गये। जम्बुचरियं, अगडदत्तचरियं, समराइच्चकहा आदि का मूल स्रोत यही कथा-ग्रन्थ है। तत्कालीन समाज व संस्कृति के विभिन्न पहलू भी इसमें उजागर हुए हैं। इसकी भाषा महाराष्ट्री प्राकृत है। जगह-जगह सुभाषितों का प्रयोग हुआ है। यथा - सव्वं गीयं विलवियं, सव्वं नर्से विडंबियं । सव्वे आभरणा भारा, सव्वे कामा दुहावहा ।। (मुखाधिकार पृ० 105) अर्थात् – सभी गीत विलाप हैं, सभी नृत्य विडम्बनाएँ हैं, सभी आभूषण भार हैं, सभी कामभोग दुःखप्रद हैं। समराइच्चकहा समरादित्यकथा को प्राकृत कथा साहित्य में वही स्थान प्राप्त है, जो कि संस्कृत साहित्य में बाणभट्ट की कादम्बरी को प्राप्त है। इसके रचयिता आचार्य हरिभद्र हैं, जिन्होंने अनेक प्राकृत ग्रन्थों की रचना की है। आचार्य हरिभद्र का समय 8वीं शताब्दी माना गया है। समराइच्चकहा का मूलाधार प्रतिशोध की भावना है। इस कथा-ग्रन्थ में राजकुमार समरादित्य

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