Book Title: Prakrit Sahitya ki Roop Rekha
Author(s): Tara Daga
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 130
________________ महावीरचरियं (पद्यबद्ध ) उत्तराध्ययन की सुखबोधा टीका के रचयिता नेमिचन्द्रसूरि द्वारा रचित पद्यबद्ध महावीरचरित भी प्राप्य है । इस ग्रन्थ की रचना वि. सं. 1141 में हुई। भगवान् महावीर के वर्तमान व पूर्वभवों की घटनाओं के इसमें रोचक उल्लेख हुए हैं। विभिन्न पात्रों के क्रिया - व्यापारों के माध्यम से मिथ्यात्व एवं सम्यक्त्व की सुन्दर अभिव्यंजना की गई है। भगवान् महावीर अपने श्रावक के भव में परोपकार करके जहाँ जीवनोत्थान की सामग्री का संचय करते हैं वहीं मारीच के भव में अहंकार के कारण शील व सद्भावना की उपेक्षा करके अपने संसार को बढ़ाते हैं । अंत में 26 वें (महावीर के) भव में तीर्थकर पद को प्राप्त करते हैं । सुपासनाहचरियं आचार्य हेमचन्द्र के शिष्य श्री लक्ष्मणगणि ने वि. सं. 1199 में गुजरात के राजा कुमारपाल के राज्याभिषेक के वर्ष में सुपार्श्वनाथचरित की रचना की है। इस पद्यबद्ध चरितकाव्य में काव्य के नायक सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ का जीवन चरित वर्णित है। सम्पूर्ण काव्य तीन प्रस्तावों में है। प्रथम प्रस्ताव में नायक के पूर्वभवों का तथा शेष प्रस्तावों में वर्तमान भव की घटनाओं का उल्लेख है। इस चरितकाव्य का मूल संदेश यही है कि अनेक जन्मों में संयम व सदाचार का पालन करने से ही व्यक्ति चरित्र का विकास कर मुक्ति पथ की ओर अग्रसर होता है। मूल कथा के साथ अवान्तर कथाएँ भी धर्मतत्त्व का ही प्रणयन करती है। इन कथाओं के माध्यम से श्रावक के 12 व्रतों एवं उनके अतिचारों का विवेचन किया गया है । सम्यक्त्व की महत्ता के लिए 'चम्पकमाला' की रोचक कथा वर्णित है । इस चरितकाव्य में सांस्कृतिक तत्त्व भी प्रचुर परिमाण में उपलब्ध हैं । जैन धर्म के प्रमुख सिद्धान्तों के साथ-साथ कापालिक, वेदान्त एवं संन्यासी मत के आचार व सिद्धान्तों का भी इसमें निरूपण हुआ है । भीमकुमार की कथा नरमुण्ड की माला धारण किये हुए कापालिक का वर्णन सजीव है । इसी प्रसंग में नरमुण्डों से मंडित कालीदेवी का भी भंयकर रूप चित्रित हुआ है। इस चरितकाव्य की भाषा पर अपभ्रंश का पूरा प्रभाव दिखाई पड़ता है । में 18

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