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शौरसेनी का उल्लेख करते हुए उनकी सामान्य विशेषताओं की ओर संकेत मात्र किया गया है।
प्राकृतप्रकाश
प्राकृतप्रकाश के रचयिता वररुचि विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक थे। वररुचि का समय लगभग चौथी शताब्दी माना गया है। विषय व शैली दोनों ही दृष्टिकोण से यह ग्रन्थ उपलब्ध प्राकृत व्याकरण-ग्रन्थों में अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। प्राकृतप्रकाश में 12 परिच्छेद हैं। प्रथम 9 परिच्छेदों में महाराष्ट्री प्राकृत के लक्षणों का वर्णन है। दसवें में पैशाची, ग्यारहवें में मागधी व बारहवें में शौरसेनी का विवेचन है। वररुचि का यह ग्रन्थ इस दृष्टि से अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण है कि इस ग्रन्थ में महाराष्ट्री के साथ-साथ पहली बार मागधी व शौरसेनी की विशेषताओं का विस्तार से निरूपण किया गया है। प्राकृत भाषा के गहन अध्ययन के लिए वररुचि के प्राकृतप्रकाश का अध्ययन अत्यन्त आवश्यक है। सिद्धहेमशब्दानुशासन
उपलब्ध प्राकृत के व्याकरण-ग्रन्थों में 11-12वीं शताब्दी के आचार्य हेमचन्द्र द्वारा विरचित सिद्धहेमशब्दानुशासन सर्वाधिक व्यवस्थित व्याकरण-ग्रन्थ है। इस विशाल व्याकरण-ग्रन्थ में 8 अध्याय हैं। आरंभ के सात अध्यायों में संस्कृत व्याकरण का अनुशासन किया गया है तथा आठवें अध्याय में प्राकृत-व्याकरण का विस्तार से निरूपण किया गया है। आठवें अध्याय में चार पाद हैं। प्रथम पाद में 271 सूत्र हैं, जिनमें संधि, व्यंजनान्त शब्द, अनुस्वार, लिंग, विसर्ग आदि का विवेचन है। द्वितीय पाद में 218 सूत्रों में संयुक्त व्यंजनों के परिवर्तन, समीकरण, स्वरभक्ति, वर्णविपर्यय, शब्दादेश, तद्वित, निपात एवं अव्ययों का निरूपण किया गया है। इस पाद में आचार्य ने संस्कृत के व्यर्थ वाले शब्दों को प्राकृत में अलग-अलग करके समझाया है। इसी पाद में अव्ययों की भी विस्तृत सूची दी है। तृतीय पाद के 182 सूत्रों में कारक, विभक्तियों, क्रिया-रचना आदि के नियमों का
कथन किया गया है। चौथे पाद में 448 सूत्र हैं, जिसमें से 329 सूत्रों में ___ मागधी, पैशाची, चूलिका-पैशाची व शौरसेनी का अनुशासन विस्तार के