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है। प्रेम व राग ं की मार्मिक अभिव्यंजना करने वाली यह गाथा दृष्टव्य हैताव च्चिय परम- सुहं जाव न रागो मणम्मि उच्छरइ ।
हंदि ! सरागम्मि मणे दुक्ख सहस्साइं पविसंति ।। ( गा. 8.80 )
अर्थात् – जब तक मन में राग का उदय नहीं होता है, तब तक परम सुख है, क्योंकि राग युक्त मन में हजारों दुःख प्रवेश कर जाते हैं । रयणचूडरायचरियं
रत्नचूडराजचरित में नायक रत्नचूड का सर्वांगीण जीवन चरित वर्णित है। उत्तराध्ययन की सुखबोधा नामक टीका के रचयिता आचार्य नेमिचन्द्रसूरि ने वि.सं. 1129-40 के मध्य इस गद्य-पद्य मिश्रित चरितकाव्य की रचना की थी । मोक्ष पुरुषार्थ को उद्देश्य बनाकर इस ग्रन्थ में राजा रत्नचूड व उनकी पत्नी तिलकसुंदरी के धार्मिक जीवन को अंकित किया गया है। इस ग्रन्थ की कथावस्तु तीन भागों में विभक्त है । (1) रत्नचूड का पूर्वभव (2) जन्म, हाथी को वश में करने के लिए जाना, तिलकसुंदरी के साथ विवाह ( 3 ) रत्नचूड का सपरिवार मेरुगमन व देशव्रत ग्रहण करना । वस्तुतः इस चरितकाव्य में नायक रत्नचूड का चरित उत्तरोत्तर विकसित होता हुआ दिखाया है । पूर्वजन्म की घटनाओं का प्रभाव नायक के वर्तमान जीवन को उदात्त रूप देता है । ग्रन्थ में वर्णित विभिन्न अवान्तर कथाएँ लौकिक व उपदेशात्मक हैं । धनपाल सेठ की कटुभाषिणी भार्या 'ईश्वरी' का दृष्टांत लोककथा का प्रतिनिधित्व करता है । राजश्री, पद्मश्री, राजहंसी, सुरानंदा आदि के पूर्वभवों की घटनाओं के वर्णन द्वारा दान, शील, तप एवं भावधर्म की महत्ता को स्पष्ट किया गया है। काव्यात्मक वर्णनों में नदी, पर्वत, वन, सरोवर, संध्या, युद्ध आदि के वर्णन प्रशंसनीय हैं।
सिरिपासनाहचरियं
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श्री पार्श्वनाथचरित के रचयिता कहारयणकोस के कर्त्ता गुणचन्द्रगणि (गुणचन्द्रसूरि ) हैं । वि. सं. 1168 में कवि ने भड़ौच में इस ग्रन्थ की रचना की थी। प्रस्तुत ग्रन्थ में पाँच प्रस्तावों में भगवान् पार्श्वनाथ का जीवन-चरित वर्णित है। प्रथम दो प्रस्तावों में पार्श्वनाथ के पूर्व भवों की, तथा शेष तीन प्रस्तावों में वर्तमान भव की घटनाओं का निरूपण हुआ है। यह एक श्रेष्ठ