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प्राकृत के प्रमुख कथा-ग्रन्थ
कथा परम्परा
___मानव जीवन के मनोरंजन एवं ज्ञानवर्धन के लिए कथा-साहित्य सर्वोत्तम साधन है। साहित्य में कथानक की विधा अत्यन्त पुरातन है। सम्भवतः मानव सभ्यता के विकास के साथ-साथ ही यह विधा भी विकसित होती चली गई। कथा-साहित्य का प्राचीनतम रूप लोक कथाओं में प्राप्त होता है। इन लोक कथाओं में कौतूहल एवं जिज्ञासा का भाव इस प्रकार विद्यमान होता है कि श्रोता चाहे ज्ञानी हो या अज्ञानी, बाल हो या वृद्ध, वह इन्हें सुनता चला जाता है। प्राकृत कथाओं की सामग्री भी प्रायः जन-जीवन पर आधारित है, अतः इनमें लोकतत्त्व प्रचुर परिमाण में उपस्थित हैं। जहाँ कहीं भी विद्वानों को लोक कथा दिखाई दी, उन्होंने उसे अपनाकर साहित्यिक रूप प्रदान कर दिया और इसी शैली ने प्राकृत कथा-साहित्य के विकास को एक नई दिशा प्रदान की। गुणाढ्य की बृहत्कथा लोक कथाओं का संग्रह ग्रन्थ माना गया है। प्राकृत कथा-साहित्य के विकास की एक लम्बी परम्परा रही है। इसके विकास के बीज आगमकाल में ही अंकुरित होने लगे, जो आगे चलकर स्वतंत्र कथा-ग्रन्थों के रूप में पुष्पित एवं पल्लवित हुए। इस दृष्टि से प्राकृत कथा साहित्य की विकास यात्रा को दो चरणों में बांट सकते हैं – (1) आगम-ग्रन्थों की कथाएँ (2) स्वतन्त्र कथा-ग्रन्थ । आगम-ग्रन्थों की कथाएँ
प्राकृत कथा-साहित्य का उद्गमस्थल प्राकृत आगम साहित्य माना जा सकता है। प्राकृत आगम साहित्य में धार्मिक आचार, आध्यात्मिक तत्त्व-चिन्तन तथा नीति एवं कर्तव्य का प्रणयन कथाओं के माध्यम से ही किया गया है। दर्शन की गूढ़ से गूढ़ समस्याओं को सुलझाने तथा अपने विचारों व अनुभूतियों को सरलतम रूप से जन-साधारण तक पहुँचाने के