Book Title: Prakrit Jain Katha Sahitya Author(s): Jagdishchandra Jain Publisher: L D Indology AhmedabadPage 17
________________ आगे चलकर जैन आचार्यों ने इसी परम्परा का अनुकरण करते हुए साहित्य का सर्जन किया । जन-कल्याण के लिए उन्होंने विविध कथाओं और आख्यानों का आश्रय लिया और प्राकृत में विपुल कथा-साहित्य का निर्माण कर जैन साहित्य के भण्डार को समृद्ध बनाया । वैदिक साहित्य में बहुत करके देवीदेवताओं की अलौकिक कथा कहानियों की ही प्रधानता थी जिनसे सामान्यजन चमत्कृत तो अवश्य होता, किन्तु पात्रों के साथ वह आत्मीयता स्थापित नहीं कर पाता था । जैन विद्वानों ने इस दृष्टिकोण में परिवर्तन किया । धर्मकथानुयोग की मुख्यता दृष्टिवाद के पांच विभागों में अनुयोग (दिगम्बर मान्यता के अनुसार प्रथमानुयोग) एक मुख्य विभाग है। इसके प्रथमानुयोग, करणानुयोग, द्रव्यानुयोग और चरणानुयोग इन चार प्रकारों में प्रथमानुयोग (अथवा धर्मकथानुयोग) को सबसे प्रमुख बताया गया है। प्रथमानुयोग अथवा धर्मकथानुयोग में सदाचारी, धीर एवं वीर पुरुषों का जीवन-चरित रहता है, अतएव जैन कथा-साहित्य की दृष्टि से यह महत्त्वपूर्ण है । जैन परम्परा में जिस विषयवस्तु का समावेश धर्मकथानुयोग में होता है, बौद्ध परम्परा में उसका समावेश सुत्तन्त अथवा सुत्तपिटक (दीघनिकाय, मज्झिमनिकाय, संयुत्तनिकाय, अंगुत्तरनिकाय और खुद्दकनिकाय) में किया जाता है। बौद्धसूत्रों की एक भविष्यवाणी में बौद्ध धर्म पर आने वाले खतरों की ओर संकेत किया गया है। खतरा यह था कि बौद्ध भिक्षु तथागत के अर्थ-गम्भीर, लोकोत्तर तथा शून्यता का प्ररूपण करने वाले उपदेश की अवहेलना कर तथागत के शिष्यों और कवियों के काव्यमय और सुन्दर वाक्य-विन्यास से अलंकृत लौकिक उपदेशों की ओर आकृष्ट हो रहे थे ।' इससे भी करणानुयोग, द्रव्यानुयोग और चरणानुयोग की तुलना में धर्मकथानुयोग की लोकप्रियता लक्षित होती है। वैसे अध्यात्मविद्या, तत्त्वज्ञान, प्रमाणशास्त्र, योगविद्या, आयुर्वेद, ज्योतिष, गणित, मन्त्रविद्या आदि कितने ही महत्त्वपूर्ण उपयोगी शास्त्र हैं, लेकिन जैन विद्वानों ने कथा-साहित्य के माध्यम से ही इनका प्ररूपण करना हितकर समझा। अर्थशास्त्र, कामशास्त्र, संगीत, स्वप्नविचार, रत्नपरीक्षा, मणिशास्त्र, खन्यविद्या और पाकशास्त्र आदि लौकिक विषयों, १. संयुत्तनिकाय २०. ७, पृ. २२२; अंगुत्तरनिकाय ४. १६०, ५.७९.५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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