Book Title: Prakrit Jain Katha Sahitya
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 16
________________ लेकिन कुछ ही दिनों बाद एक टिड्डीदल खलिहान पर टूट पड़ा । हवा आने के लिए खलिहान की मोरी में से होकर एक टिड्डी प्रवेश करती और फुर्र से उड़ जाती। राजा को लक्ष्य करके कथक ने कहा-महाराज ! सुनिए, एक टिड्डी उड़ी फुर्र, दूसरी टिड्डी उड़ी फुर्र, तीसरी टिड्डी उड़ी फुर्र, चौथी टिड्डी उड़ी फुर्र पांचवीं टिड्डी उड़ी फुर्र । राजा ने पूछा-फिर क्या हुआ ? "महाराज, छठी टिड्डी उड़ी फुरी, सातवीं टिड्डी उड़ी फुर्र, आठवीं टिड्डी उड़ी फुर्र ।” "उसके बाद ?" "नौवीं टिड्डी उड़ी फुरी,, दसवीं टिड्डी उड़ी फुर्र ।"....सौवीं टिड्डी उड़ी फुर्र। इस प्रकार राजा ने जब देखा कि कथक टिड्डियों को उड़ाता ही चला जाता है, रुकने का नाम नहीं लेता, तो वह हार मानकर उसे आधा राज्य देने के लिए मजबूर हो गया। ___तात्पर्य यह है कि कहानी में कुतूहल और जिज्ञासा की पर्याप्त मात्रा होनी चाहिए, तभी उसमें रोचकता आ सकती है । २. जैन कथाकारों का उद्देश्य जनपद विहार, जनभाषा, लौकिक कथा साहित्य । प्राचीन जैन ग्रन्थों में उल्लेख है कि जनपद विहार करने से जैन साधुओं की दर्शन विशुद्धि होती है, तथा महान् आचार्य आदि की संगति प्राप्त कर वे अपने को धर्म में दृढ़ रख सकते हैं । जनपद विहार करते समय उन्हें मगध, मालवा, महाराष्ट्र, लाट, कर्णाटक, द्रविड़, गौड और विदर्भ आदि की देशी भाषाओं से सुपरिचित होना चाहिए जिससे कि वे सर्वसाधारण को उनकी भाषाओं में उपदेश दे सकें ।' भगवान् महावीर ने भी स्त्री, बाल, वृद्ध तथा अक्षर ज्ञान से शून्य सर्व-सामान्य जनता को अपने निर्ग्रन्थ प्रवचन का लोकभाषा अर्धमागधी में ही उपदेश दिया था । १. बृहत्कल्पभाष्य, जनपदप्रकरण ( १२२९-३०, १२३६) २. अम्ह इत्थिबालवुड्ढअक्खरअयाणमाणाणं अणुकंपणत्थं सव्वसत्तसमदरसीहिं अद्धमागहाए भासाते सुत्त उद्दिठं - आचारांगचूर्णी, पृ० २५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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