Book Title: Prakrit Jain Katha Sahitya
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 14
________________ शकुन - शकुनी संवाद किसी शकुन और शकुनी ने जमदग्नि की दाढ़ी में घोंसला बना लिया । एक बार शकुन अपनी शकुनी से कहने लगा-भद्रे ! तुम यहीं रहना, मैं हिमालय पर्वत पर अपने माता-पिता से मिलकर जल्दी ही आ जाऊँगा । शकुनी — प्राणनाथ ! आप न जायें। आपको अकेले समझकर कहीं कोई तकलीफ न देने लगे ! शकुन – तू डर मत ! यदि कोई मेरा पराभव करेगा तो मैं उसका प्रतिकार करने में समर्थ हूँ ! शकुनी — क्या भरोसा ? कहीं आप मुझे भूलकर किसी दूसरी शकुनी से प्रेम न करने लगें ! इससे मुझे कितना कष्ट होगा ! शकुन — तुझे मैं अपने प्राणों से भी अधिक चाहता हूँ, तेरे बिना मैं थोड़े समय के लिए भी अन्यत्र नहीं रह सकता । शकुनी — विश्वास नहीं होता कि आप लौट कर आ जायेंगे ! शकुन --- तू जिसकी कहे, उसकी शपथ खाने को तैयार हूँ ! शकुनी — यदि ऐसी बात है तो शपथ खाइए कि यदि आप वापिस न आयें तो इस ऋषि को जो पाप लगा है, वह आपको लगे । शकुन -और किसी की भी शपथ खाने को मैं तैयार हूँ, लेकिन इस ऋषि के पाप से लिप्त होना मैं नहीं चाहता । पक्षियों का यह वार्तालाप सुनकर जमदग्नि ने सोचा कि क्या बात है जो ये पक्षी मेरे पाप को इतना बड़ा बता रहे हैं । जमदग्नि ने दोनों को पकड़कर पूछा- अरे पक्षियो ! देखते नहीं, कितने हजारों वर्षों से मैं कुमार ब्रह्मचारी रह कर तपश्चर्या कर रहा हूँ ? मैंने कौनसा पाप किया है जो तुम मेरी शपथ खाने से इन्कार करते हो ? शकुन ने उत्तर दिया - महर्षि ! निस्संतान होने के कारण आप नदी जल के वेग से उखड़े हुए निरालंब वृक्ष की भांति, कुगति को प्राप्त करेंगे । आपका नाम तक कोई न लेगा । क्या यह कुछ कम पाप है ? क्या आप अन्य ऋषियों के पुत्रों को नहीं देखते ? यह सुनकर ऋषि अरण्यवास छोड़कर दारसंग्रह के लिए चल दिया ।' शुक की एक दूसरी कहानी देखिए - वसुदेवहिंडी, पृ० २३६ १. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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