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प्राकृत भारती
अन्धकार से युक्त गगन सभी दिशाओं को कलुषित कर रहा है। यह तो दुर्जन का स्वभाव है जो सज्जनों के उज्जवल चरित्र पर कालिख पोतता है'
उच्छरइ तमो गयणो मइलन्तो दिसिवहे कसिणवण्णो। सज्जणचरियउज्जोयं नज्जइ सा दुज्जण सहावो ॥
-पउमचरियं-२-१०० इसी तरह वसुदेवहिण्डी, समराइच्चकहा, कुवलयमाला, सुरसुन्दरीचरियं आदि अनेक प्राकृत कथा व चरित-ग्रन्थों में प्राकृत काव्य के विविध रूप देखने को मिल सकते हैं। इन ग्रन्थों में काव्य का दिग्दर्शन कराना मुख्य उद्देश्य नहीं है, अपितु कथा एवं चरित विशेष को विकसित करना है। किन्तु प्राकृत साहित्य में कुछ इस प्रकार के भी ग्रन्थ हैं, जिन्हें विशुद्ध रूप से काव्य ग्रन्थ कहा जा सकता है। प्राकृत चूँकि ललित एवं सुकुमार भाषा रही है, अतः उसमें काव्यगुण साहित्य की आत्मा के रूप में प्रतिष्ठित हैं । प्राकृत के प्रसिद्ध कवि हाल, प्रवरसेन, वाकपतिराज, कोऊहल आदि की काव्य रचनाएँ इस बात की साक्षी हैं।
रसमयी प्राकृत काव्य के जो ग्रन्थ आज उपलब्ध हैं, उन्हें तीन-भागों में विभक्त किया जा सकता है-(१) मुक्तक काव्य (२) खण्ड-काव्य एवं (३) महाकाव्य । प्राकृत काव्य के इन तीनों प्रकार के ग्रन्थों का परिचय एवं मूल्यांकन प्राकृत साहित्य के इतिहास ग्रन्थों में किया गया है । इन ग्रन्थों के सम्पादकों ने भी उनके महत्त्व आदि पर प्रकाश डाला है । कुछ प्रमुख काव्य ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय यहाँ प्रस्तुत है। मुक्तक काव्य :
मुक्तक काव्य में प्रत्येक पद्य रसानुभूति कराने में समर्थ एवं स्वतन्त्र होता है। इस दृष्टि से मुक्तक काव्य की रचना भारतीय साहित्य में बहुत पहले से होती रही है। प्राकृत साहित्य में यद्यपि सुभाषित के रूप में कई गाथाएँ विभिन्न ग्रन्थों में प्राप्त होती हैं, किन्तु व्यवस्थित मुक्तक काव्य के रूप में प्राकृत के दो ग्रन्थ उल्लेखनीय हैं-(१) गाथासप्तशती एवं (२) वज्जालग्गं ।
गाथासप्तशती-प्राकृत का यह सर्व प्रथम मुक्तककोश है। इसमें अनेक कवि और कविषत्रियों की चुनी हुई सात सौ गाथाओं का संकलन है। यह संकलन लगभग प्रथम शताब्दी में कविवत्सल हाल ने लगभग एक करोड़ गाथाओं में से चुनकर तैयार किया है। यथा
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