Book Title: Prakrit Bharti
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 16
________________ प्राकृत भाषा एवं साहित्य माना गया है। इसके पूर्व की पैशाची के कोई उदाहरण साहित्य में उपलब्ध नहीं हैं। पैशाची भाषा किसी प्रदेश विशेष की भाषा नहीं थी, अपितु भिन्न-भिन्न प्रदेशों में रहने वाली किसी जाति विशेष की भाषा थी, जिस कारण इसका प्रचार कैकय, शूरसेन और पांचाल प्रदेशों में अधिक हुआ है। ग्रियर्सन इसे पश्चिम पंजाब और अफगानिस्तान की भाषा मानते हैं । पैशाची में वर्ण परिवर्तन बहत होता है, यथा-गकनं-(गगनम्) मेखो(मेघ) राचा-(राजा) सतन-(सदनम) कच्चं-(कार्य) आदि । पैशाची भाषा में गुणाढ्य का बृहत्कथा नामक ग्रन्थ लिखे जाने का उल्लेख है। इस कथा के कई रूपान्तर आज उपलब्ध हैं, जो भारतीय कथा साहित्य के प्रतिनिधि ग्रन्थ हैं। अपभ्रंश : महाराष्ट्री प्राकृत जब धीरे-धीरे केवल साहित्य की भाषा बनकर रह गयी तब जन भाषा के रूप में जो भाषा विकसित हुई उसे विद्वानों ने "अपभ्रंश भाषा" कहा है। इस अपभ्रंश में ७वीं शताब्दी से १५वीं शताब्दी तक पर्याप्त साहित्य लिखा गया है। अपभ्रंश भाषा प्राकृत और हिन्दी भाषा को परस्पर जोड़ने वाली कड़ी है। अपभ्रंश उकार बहुला भाषा है। इसमें विभक्तियों की संख्या धीरे-धीरे कम होती गयी है। देश की प्रान्तीय भाषाओं के विकास में अपभ्रश का महत्त्वपूर्ण योगदान है। अतः प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषाओं के अध्ययन के बिना भारतीय भाषाओं का अध्ययन परिपूर्ण नहीं माना जाता है। प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषाओं में लिखित साहित्य की लम्बी परम्परा है। यद्यपि इन भाषाओं के अधिकांश ग्रन्थ अभी अप्रकाशित हैं, किन्तु जो साहित्य प्रकाश में आया है, वह भाषाशास्त्रियों के लिए भी कम महत्त्व का नहीं है। (ग) प्राकृत का काव्य-साहित्य प्राकृत भाषा में काव्य-रचना प्राचीन समय से ही होती रही है । आगम-ग्रन्थों एवं शिलालेखों में अनेक काव्य-तत्त्वों का प्रयोग हुआ है। प्राकृत भाषा के कथा-साहित्य एवं चरित ग्रन्थों में भी कई काव्यात्मक रचनाएँ भी उपलब्ध हैं। पादलिप्त की तरंगवती-कथा तथा विमलसूरि के पउमचरियं में कई काव्यचित्र पाठक का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते हैं। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, श्लेष आदि अलंकारों का प्रयोग इसमें हुआ है । उत्प्रेक्षा का एक दृश्य द्रष्टव्य है-'संध्याकालीन कृष्ण वर्ण वाले Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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