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प्राकृत भाषा एवं साहित्य
ईसा की द्वितीय से छठी शताब्दी तक जिस प्राकृत भाषा में साहित्य लिखा गया है, उसे मध्ययुगीन प्राकृत कहा जाता है। इस युग की प्राकृत को हम साहित्यिक प्राकृत भी कह सकते हैं। किन्तु प्रयोग की भिन्नता की दृष्टि से इस समय तक प्राकृत के स्वरूप में क्रमशः परिवर्तन हो गया था, अतः प्राकृत के वैयाकरणों ने प्राकृत के ये पाँच भेद निरूपित किये हैं-अर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री, मागधी एवं पैशाची । इनका स्वरूप एवं प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार हैंअर्धमागधी : __ जैन आगमों की भाषा को अर्धमागधी कहा गया है। प्राचीन आचार्यों ने मगध प्रदेश के अर्धांश में बोली जाने वाली भाषा को अर्धमागधी कहा है। कुछ विद्वान् इसमें मागधी भाषा की कतिपय विशेषताएँ होने के कारण इसे अर्धमागधी कहते हैं। मार्कण्डेय ने शौरसेनी के निकट होने से मागधी को हो अर्धमागधी कहा है। वस्तुतः अर्धमागधी में ये तीनों विशेषताएँ परिलक्षित होती हैं। पश्चिम में शौरसेनी और पूर्व में मागधी भाषा के बीच के क्षेत्र में बोली जाने के कारण इसका अर्धमागधी नाम सार्थक होता है। यद्यपि इसका उत्पत्ति-स्थान अयोध्या को माना जा सकता है, फिर भी इसका महाराष्ट्री प्राकृत से अधिक सादृश्य है। इसके अस्तित्व में आने का समय ई० पू० चौथी शताब्दी माना जा सकता है।
अर्धमागधी का रूप-गठन मागधी और शौरसेनी की विशेषताओं से मिलकर हुआ है। इसमें लुप्त व्यंजनों के स्थान पर यश्रुति होती है। यथा-श्रेणिकम्-सेणियं । क का 'ग', न का 'ण' एवं प का 'व' में परिवर्तन होता है। प्रथमा एकवचन में 'ए' तथा 'ओ' दोनों होते हैं । धातु-रूपों में भूतकाल के बहुवचन में 'इंसु' प्रत्यय लगता है, तथा कृदन्त में एक धातु के कई रूप बनते हैं । यथा-कृत्वा के कटु, किच्चा, करित्ता, करित्ताण आदि। शौरसेनी :
शौरसेनी प्राकृत शूरसेन (मथुरा) की भाषा थी। इसका प्रचार मध्यप्रदेश में हआ था। जैनों के षटखंडागम आदि ग्रन्थों की रचना इसी में हुई थी। बाद में दिगम्बर जैन आगम ग्रन्थों की यह मूल भाषा बन गयी । उपलब्ध साहित्य की दृष्टि से यह सबसे प्राचीन साहित्यिक प्राकृत
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