Book Title: Prakrit Bharti
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 13
________________ प्राकृत भारती __ई० पू० छठी शताब्दी से ईसा की द्वितीय शताब्दी के बीच प्राकृत में निर्मित साहित्य की भाषा प्रथमयुगीन प्राकृत कही जा सकती है । इस प्राकृत भाषा के पाँच रूप हैं१. आर्ष प्राकृत : भगवान बुद्ध और महावीर के उपदेशों की भाषा क्रमशः पालि और अर्धमागधी के नाम से जानी गयी है । धार्मिक प्रचार के लिए सर्व प्रथम इन भाषाओं का महापुरुषों द्वारा उपयोग हुआ इसलिए इनको ऋषियों की भाषा अथवा आर्ष प्राकृत कहना उचित है । २. शिलालेखी प्राकृत : जन-भाषा प्राकृत की प्राचीन राजाओं ने अपने राजकाज की भाषा भी बनाया। लिखित रूप में प्राकृत भाषा का सबसे पुराना रूप शिलालेखों की भाषा में सुरक्षित है। सर्व प्रथम सम्राट अशोक ने शिलालेखों में प्राकृत भाषा का प्रयोग किया। उसके बाद खारवेल का हाथीगुफा शिलालेख प्राकृत में लिखा गया। फिर लगभग ४०० ई० तक हजारों शिलालेख प्राकृत में लिखे पाये जाते हैं। इन सबकी भाषो जनबोलियों की मिश्रित भाषा है, जिसे विद्वानों ने शिलालेखी प्राकृत कहा है। ३. निया-प्राकृत : निया प्रदेश (चीनी तुर्किस्तान) से प्राप्त लेखों की भाषा को “निया प्राकृत" कहा गया है। इस प्राकृत भाषा का तोखारी भाषा के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। ४. धम्मपद की प्राकृत : पालि धम्मपद की तरह प्राकृत में भी लिखा गया एक धम्मपद मिला है। इसकी लिपि खरोष्ठी है। इसकी प्राकृत पश्चिमोत्तर प्रदेश की बोलियों से सम्बन्ध रखती है। ५. अश्वघोष के नाटकों की प्राकृत : अश्वघोष के नाटकों में प्रयुक्त प्राकृत जैन सूत्रों की प्राकृत से भिन्न है । यह भिन्नता प्राकृत के विकास को सूचित करती है । इस समय तक मागधी, अर्धमागधी, शौरसेनी नाम से प्राकृत के भेद हो चुके थे। इस प्रकार प्रथम युगीन प्राकृत भाषा इन आठ सौ वर्षों में प्रयोग की दृष्टि से विभिन्न रूप धारण कर चुकी थी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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