Book Title: Prakrit Bharti
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 12
________________ प्राकृत भाषा एवं साहित्य आदि लिखे गये हैं, उनमें काव्यात्मक सौन्दर्य और मधुर रसात्मकता का समावेश है। इसे प्राकृत ने २३०० वर्षों के जीवनकाल में निरन्तर बनाये रखा है। भारतीय काव्य-शास्त्रियों ने भी सहजता और मधुरता के कारण प्राकृत को सैकड़ों गाथाओं को अपने ग्रन्थों में उद्धरण के रूप में सुरक्षित रखा है। इस तरह प्राकृत ने देश की चिन्तनधारा, सदाचार और काव्य जगत् को निरन्तर अनुप्राणित किया है । अतः प्राकृत भारतीय संस्कृति की संवाहक भाषा है। प्राकृत ने अपने को किसी घेरे में कैद नहीं किया। इसके पास जो था उसे वह जन-जन तक बिखेरती रही, और जन समुदाय में जो कुछ था उसे ग्रहण करती रही। इस तरह प्राकृत भाषा सर्वग्राह्य और सार्वभौमिक भाषा है। भारत देश की संस्कृति को सुरक्षित रखने वाली भाषा है। विकास के चरण : प्राकृत भाषा के स्वरूप को प्रमुख रूप से तीन अवस्थाओं में देखा जा सकता है । वैदिक युग से महावीर युग के पूर्व तक के समय में जन भाषा के रूप में जो भाषा प्रचलित श्री उसे प्रथम स्तरीय प्राकृत कहा जा सकता है, जिसके कुछ तत्व वैदिक भाषा में प्राप्त होते हैं। महावीर युग से ईसा की द्वितीय शताब्दी तक आगम ग्रन्थों, शिलालेखों एवं नाटकों आदि में प्रयुक्त प्राकृत भाषा को द्वितीय स्तरीय प्राकृत नाम दिया जा सकता है। और तीसरी शताब्दी के बाद ईसा की छठीं शताब्दी तक प्रचलित एवं साहित्य में प्रयुक्त प्राकृत को तृतीय स्तरीय प्राकत कह सकते हैं । उसके बाद देश की क्षेत्रीय भाषाओं के साथ-साथ प्राकृत का विकास होता रहा है। (ख) प्रमुख प्राकृत भाषाएँ प्राकृत भाषा की उत्पत्ति एवं विकास की दृष्टि से उसके मुख्यतः दो भेद किये जा सकते हैं। प्रथम कथ्य-प्राकृत, जो बोल-चाल में बहुत प्राचीन समय से प्रयुक्त होती रही है। किन्तु उसका कोई लिखित उदाहरण हमारे समक्ष नहीं है। दूसरी प्रकार की प्राकृत साहित्य की भाषा है, जिसके कई रूप हमारे समक्ष उपलब्ध हैं। इस साहित्यिक प्राकृत के भाषा-प्रयोग एवं काल की दृष्टि से तीन भेद किये जा सकते हैं(१) आदियुग (२) मध्ययुग (३) अपभ्रंश युग। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org


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