Book Title: Pradyumnakumara Cupai
Author(s): Kamalshekhar, Mahendra B Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 117
________________ प्रद्युम्नकुमार-चुपई कइ मइ दव परजालीयां कइ फोडी पालि तरूयर मइ काप्या वली ते दुख संभालि ...मा. १५० कइ मइ तुरंफल तोडीया सवि काचां तोय कइ मइ जीव संतापीया ते फल ए जोय... ...मा. १५१ कइ मइ मुनि उवेखीया कइ वलि दीधी गालि कइ मइ जीव दुहव्या घणा अगनि करी झालि ...मा. १५२ इम झूरता आवीया श्रीकृष्णमुरारि नयण-नीर वहइ घणूं दुख देखिउ नारि ...मा. १५३ दूहा दृज्जणजण बब्बूलवण जइ सिंचह अमीएण । तुअ ति कंटाविंधणा सारीरह गुणेण ॥२३1 (सत्यभामाने कृष्णे आपेलो ठपको) । कोप करि तव हरि कहइ सुणि सतिमामा वात रुखमणि पुत्र-दुखिइ भरी तइ किम बोली घात १५४ सीहां लत न वीसरइ जे दिधी हरिणेण सा सकलंकी वालसिउ कालो काल गएण १५४क (श्रीकृष्ण, रुक्मिणीने आश्वासन ) कृष्ण कहइ रुखमणि प्रतिइ धर्म करु एक चित्ति थोडे दिनि पुत्र आवसिइ तूं छइ पुन्यपवित्र स्वर्ग-मृत्यु-पाताल जिहां पुत्र करावि सार वहिल आवीनइ कहिसि आगम पजूनकुमार (कृष्ण-रुक्मिणी पासे नारदमुं पुनरागमन) इम समझावी आवियु विलखवदनि हरिराय तव नारदि बोलावीया आवी लागा पाय 1. आ +हो जैन गुर्जर कविओ-भाग १ लो', पृ. २७२ उपर आपेलो छे, ते प्रमाणे अहीं मकेलो छे. मूळ हस्तप्रतमां आ दूहो नीचे प्रमाणे लखेलो छ : दृज्जणजण बबूलवण जु सींचु अमीयेण । तही ते कंटाभाजणा जातिई तणइ गुणेण ।। १५५ १५६ १५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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