Book Title: Pradyumnakumara Cupai
Author(s): Kamalshekhar, Mahendra B Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 160
________________ ६०२ चतुर्थ सर्ग तेणइ रूप अनोपम करिउ मा हरूं काज! इणीपरि सरिउं सतिभामा कहइ सुणि तूं दासि सिद्धपुरुष आणु मुझ पासि सिद्धपुरुष प्रति दासी भणइ घरि आवु सतिभामा तणइ सिद्धपुरुष तव आविउ हसी सतिभामा देखी उल्हसी । ६०३ सतिभामां जव लागी पाय सिद्धपुरुष कहइ मागु माय तव हरखी सतिभामा नारि कहि स्वामी सुकिसंकट वारि ६०४ (प्रधुम्न द्वारा सत्यभामानी रूपविकृति ) माहरु रूप अनोपम करे जिम अधिक मुझ मानइ हरे सिद्ध कहइ सतिभामा सुणउ मूंडउ मस्तक तुम्हे आपणउ ६०५ मुहुंडइ मसि लगाडउ घणी मंत्र जपु तुम्हे मुझकन्हइ भणी स्वामी इम किम रूपह थाइ भोली मंत्रिइ कुरूप सवि जाइ2 ६०६ स्वामी तुम्हे करू पसाउ मूंडउ माथउ विहला थाउ तव ते सिद्धिइ सिर मुंडीयु मिसि लेई मुंडं खरडीयु उँ गडबडाय स्वाहा ए मंत्र सिद्धि साहिउ ए मोटउ तंत्र रही एकांति जपु ए जाप रूप अपूरव थाइ आप4 सतिभामा उरामांहि जई मंत्र जपइ एकमनी थई एतलं करी सिद्ध ते गयु रुखमणिनइ तव आणंद थयु ६०९ (प्रद्युम्ननां लग्ननी तैयारी) धरी लगन नइ जोसी गया यादव सवि रली[याय]त थया मंडप मंडाव्या तेहरइं ठांमि ठामि ते तोरण करइ । ६१० पटुलां बांध्यां विस्तारि कनककलस तिहां सोहइ बारि भोजन करीय ... ... . विधविध भात पकवानहतणी ६११ नुहंतरिवा आव्या सवि राइ रूपणिनइ मनि हर्ष न माइ मंडलीक जे पुहवि असेस आव्या घरि......[न] रेस ६१२ 1. काजाः 2. जाइ 3. सहिउ 4. आणूप ६०७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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