Book Title: Prachin Jain Itihas 01
Author(s): Surajmal Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 6
________________ यद्यपि अभी यह प्रयत्न, संभव है कि बहुत त्रुटियोंसे भरा हो, पर आगामी इसके द्वारा कोई विद्वान् संपूर्ण त्रुटियोंसे रहित प्रयत्न कर सकेंगे यही समझकर मैं इसे पाठकोंक भेट करता हूं। मेरी इच्छा थी कि मैं इस पुस्तककी भूमिका समालोचनात्मक और तुलनात्मक पद्धतिसे लिखू, पर इतिहास संबंधमें अपनी अल्पज्ञताको ध्यानमें लाकर यह कार्य किसी मन्य विद्वान्पर छोड़ता हुआ भूमिका समाप्त करता हूं। लेखक । द्वितीयावृत्तिका निवेदन ! हर्ष है कि इस प्रथकी द्वितियावृत्तिका सुयोग प्राप्त हुमा है । जैन समाजने इस अथको अच्छी तरह अपनाया है इसके लिये मैं समाजका आभारी हूं। यह ग्रंथ प्रायः सम्पूर्ण जैन संस्थाओंमें पढ़ाया जाता है। जिन संस्थाओंमें नहीं पाया जाता हो उन्हें भी यह ग्रन्थ अपने पठनक्रममें रखना उचित है, जिससे कि विद्यार्थी संक्षिप्तमें अपने धर्मके और समाजके प्राचीन गौरवको नान सके। अन्तमें हम श्रीयुत मूळचंदनी किसनदाप्त कापडियाको धन्यवाद देते है जिनके कि उत्साहसे यह द्वितीयावृत्ति प्रकाशित हो रही है।

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