Book Title: Patanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Author(s): Aruna Anand
Publisher: B L Institute of Indology

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Page 16
________________ तृतीय अध्याय : योग के अधिकारी, प्राथमिक योग्यता एवं आवश्यक निर्देश ६१-१२० १. योग के अधिकारी अ पातञ्जलयोग-मत आ जैनयोग-मत :- योग का अधिकारी - सम्यक्त्वी, त्रिविध कोटि के योगाधिकारी - अपुनर्बन्धक, भिन्न-ग्रन्थि या सम्यग्दृष्टि, चारित्री (व्रती/संयमी)। अधिकारी-भेद से योगी के विविध प्रकार अ पातञ्जलयोग-मत :- प्रथमकल्पिकयोगी, मधुभूमिकयोगी, प्रज्ञाज्योतियोगी, अतिक्रान्तभावनीययोगी आ जैनयोग-मत :- कुलयोगी, गोत्रयोगी, प्रवृत्तचक्रयोगी (योगावञ्चक, क्रियावञ्चक, फलावञ्चक), निष्पन्नयोगी योग-साधना प्रारम्भ करने से पूर्व आवश्यक तैयारी अ पातञ्जलयोग-मत आ जैनयोग-मत :- पूर्वसेवा (देवगुरुपूजन, दान, सदाचार, तप, मोक्ष-अद्वेष). मार्गानुसारी के गुण, साधक के लिए निर्दिष्ट अनुष्ठान (विषानुष्ठान, गरानुष्ठान, अननुष्ठान, तद्धेतु अनुष्ठान, अमृतानुष्ठान), गृहस्थ व मुनि के लिए पृथक-पृथक् धर्मानुष्ठान, आहार-निर्देश, गुरु की आवश्यकता। चतुर्थ अध्याय : योग और आचार १२१-१८७ अ. पातञ्जलयोग और आचार आ. जैनयोग और आचार :- सम्यग्दर्शन - अर्थ, अंग, लक्षण, भेद, प्रतिपक्षी भाव मिथ्यात्व, मिथ्यात्व के प्रकार, सम्यग्दर्शन के दोष, प्राप्तिक्रम। सम्यग्ज्ञान - अर्थ, ज्ञान के प्रकार, ज्ञेय वस्तु, अनेकान्तवाद, वस्तु का स्वरूप, अनेकान्तवाद और स्याद्वाद, स्यादवाद का अर्थ, स्यादवाद की कथन शैली- सप्तभंगी, ज्ञेयविषय-जीव, अजीव (धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुदगल), पुण्य, पाप, आम्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष । सम्यक्चारित्र - अर्थ, चारित्र के भेद - निश्चय और व्यवहार-चारित्र, सराग और वीतराग-चारित्र, सकल और विकल-चारित्र, सामायिकादि पंचविध चारित्र (सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि. सूक्ष्मसंपराय एवं यथाख्यात)। श्रावकाचार - अणुव्रत (स्थूल प्राणातिपातविरमण, स्थूल मृषावादविरमण, स्थूल अदत्तादानविरमण, स्वदारसंतोष या परदारविरमण, इच्छा-परिमाण या परिग्रह-परिमाण अणुव्रत). शीलव्रत - गुणव्रत (दिग्वत, भोगोपभोग-परिमाणव्रत, अनर्थदण्डव्रत), शिक्षाव्रत (सामायिक, देशावकाशिक, पौषधोपवास या पौषधव्रत, अतिथि संविभागवत), गृहस्थ योगी की विशिष्ट साधना : प्रतिमा (दर्शन, व्रत, सामायिक, पौषध, कायोत्सर्ग, ब्रह्मचर्य, सचित्तवर्जन, आरम्भवर्जन, प्रेष्यवर्जन, उदिष्टभक्तवर्जन, श्रमणभूत), श्रावक के छह कर्म, सल्लेखना। श्रमणाचारमहाव्रत (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह). समिति-गुप्ति - गुप्ति, समिति (ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदाननिक्षेप समिति, उत्सर्ग या व्युत्सर्गसमिति). द्वादशानुप्रेक्षा (अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म, लोक, बोधि-दुर्लभ). षडावश्यक (सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, xiv Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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