Book Title: Parmarth Vachanika Pravachan
Author(s): Hukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 10
________________ संसारावस्थित जीव की अवस्था एक जीवद्रव्य, उसके अनन्त गुण, अनन्त पर्यायें, एक-एक गुण के असंख्यात प्रदेश, एक-एक प्रदेश में अनन्त कर्मवर्गणाएँ, एकएक कर्मवर्गणा में अनन्त-अनन्त पुद्गलपरमाणु, एक-एक पुद्गलपरमाणु अनन्त गुण व अनन्त पर्यायसहित विराजमान। यह एक संसारावस्थित जीवपिण्ड की अवस्था। इसी प्रकार अनन्त जीवद्रव्य सपिण्डरूप जानना। एक जीवद्रव्य अनन्त-अनन्त पुद्गलद्रव्य से संयोगित (संयुक्त) मानना। यह जैन परमेश्वर सर्वज्ञदेव के शासन की बात है। जगत में स्वतंत्ररूप से अनन्त जीव, जीव की अपेक्षा अनन्तगुने पुद्गलद्रव्य, एक-एक जीव में और एक-एक पुद्गलपरमाणु में अपने-अपने अनन्त गुण और उनका परिणमन - यह सब भगवान सर्वज्ञदेव के अतिरिक्त अन्य कोई जानने में समर्थ नहीं; अतः सर्वज्ञदेव के जैनशासन के अलावा कहीं भी ऐसी बात नहीं हो सकती। अधिकांश जीव तो जीव की स्वतंत्र सत्ता को ही स्वीकार नहीं करते; वे तो ऐसा मानते हैं कि किसी ईश्वर ने इस जीव को बनाया है अथवा सब मिलकर अद्वैत है, परन्तु उन्होंने एक-एक जीव की पूर्ण सत्ताको स्वीकार नहीं किया और स्व व जगत के अन्य जीवों की सत्ता को पराधीन और अपूर्ण माना। भाई! जो जीव आत्मा का पूर्ण अस्तित्व ही न माने, वह उसकी पूर्णदशा को कैसे साध सकेगा? अतः सर्वप्रथम भगवान सर्वज्ञदेव के.. कथनानुसार जगत में सर्व अनन्त जीवों का स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकारना

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