Book Title: Parmarth Vachanika Pravachan
Author(s): Hukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 82
________________ हेय-ज्ञेय-उपादेयरूप ज्ञाता की चाल 'ज्ञेयपना' तो आ ही गया अर्थात् मात्र ज्ञेय में उसकी बात नहीं की। हाँ, अन्य जीवादि छह द्रव्य तो मात्र ज्ञेयरूप ही हैं। ज्ञेयरूप तो सभी तत्त्व हैं। उपादेयरूप शुद्धजीव तथा संवर-निर्जरामोक्ष हैं। हेयरूप पुण्य-पाप आस्रव और बन्ध हैं। अजीवतत्त्व हेय नहीं है, उपादेय भी नहीं है, मात्र ज्ञेय है; अर्थात् जड़कर्म भी वास्तव में हेय-उपादेय नहीं, वह मात्र ज्ञेय है। तथापि उसके आश्रय से होनेवाले परभावों को छुड़ाने के लिए (और स्वद्रव्य का आश्रय कराने के लिए) उपचार से उस अजीव कर्म को 'हेय' भी कदाचित् कह दिया जाता है; वहाँ सचमुच तो परद्रव्य के आश्रय से होनेवाली अशुद्धता का ही हेयपना बताने का आशय है। अज्ञानीस्वद्रव्य को भूलकर परद्रव्य का ग्रहण-त्याग करना चाहता है, वह विपरीत बुद्धि है; ज्ञानी को पर में ग्रहण-त्याग की बुद्धि नहीं होती। मुझे छोड़ने योग्य यदि कुछ है तो मेरी अशुद्धता और ग्रहण करने योग्य कुछ है तो मेरी शुद्धता। अहा! ऐसी बुद्धि होने पर किसी के ऊपर राग-द्वेष नहीं रहा, किंचित् भी पराश्रयबुद्धि नहीं रही, मात्र निज में ही देखना रह गया। भाई! तू दूसरे अजीव को अथवा पर को छोड़ना चाहता है, सो प्रथम तो वे तुझसे , छूटे ही हैं; तथा दूसरे यह कि आकाश के एकक्षेत्र में रहनेरूप उनका संयोग तो सिद्धों के भी है अर्थात् उनके भी नहीं छूटता। जगत में छहों द्रव्य सदाकाल एकक्षेत्रावगाहरूप रहने वाले हैं, इसलिए पर को छोड़ने की तेरी बुद्धि मिथ्या है। इसीप्रकार पर का एक अंश भी कभी तेरे स्वरूप में आता नहीं, इसलिए पर को ग्रहण करने की बुद्धि भी मिथ्या है। ज्ञानी के पर के ग्रहण-त्याग की ऐसी मिथ्याबुद्धि नहीं होती, ज्ञानी की चाल (पद्धति) तो अनोखी है। उसकी परिणति अन्तर में ग्रहण-त्याग का जो कार्य क्षण-क्षण में कर रही है, वह बाहर से पहिचानने में नहीं आती; वह क्षण-क्षण में शुद्धस्वभाव को ग्रहण करता है और परभावों को छोड़ता है। स्वभाव

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