Book Title: Parmarth Vachanika Pravachan
Author(s): Hukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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अध्यात्मपद्धतिरूपस्वाश्रित मोक्षमार्ग
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पराश्रित राग या पराश्रित ज्ञान, वह मोक्षमार्ग नहीं है; स्वानुभूति का सामर्थ्य ही मोक्षमार्ग है। पराश्रयभावशून्य मोक्षमार्ग ज्ञाता ही साध सकता हैं, अज्ञानी तो उसे जान भी नहीं सकता। अहो! यह तो अर्हन्तों का - शूरवीरों का मार्ग है, यह कायरों का मार्ग नहीं है। समस्त परभावों को हेय करके और शुद्धता को उपादेय करके मोक्षमार्ग में स्थिति प्राप्त करना - स्वाश्रय करनेवाले शूरों का ही कार्य है, पराश्रय करनेवाले कायरों का नहीं। वीतरागी मोक्षमार्ग का डंका पीटते हुए सन्त कहते हैं कि अरे, राग को धर्म मानने वाले कायरों! तुम्हें चैतन्य का वीतरागमार्ग नहीं मिल सकता, चैतन्य को साधने का स्वाधीन पुरुषार्थ तुम प्रगट नहीं कर सकते। स्वाधीन चैतन्य का तुम्हारा पुरुषार्थ कहाँ गया? तुम धर्म करने निकले हो तो चैतन्यशक्ति का शौर्य अपने में प्रगट करो; इस वीतरागी वीरता में ही मोक्षमार्ग सधेगा। व्यवहार की रुचि की उपस्थिति में जीव को अन्तरस्वभाव में जाने की उमंग नहीं आती। अतः राग का रस छोड़कर चैतन्यस्वभाव का उत्साह करो, जिससे स्वसत्ता के अवलम्बन की तरफ ज्ञान झुके और मोक्षमार्ग सधे। अहो! ऐसे स्वानुभवज्ञान से मोक्षमार्ग को साधनेवाले ज्ञानी की महिमा की क्या बात? इसकी दशा को पहिचानने वाला जीव निहाल हो गया है।
देखो, इन पण्डित बनारसीदासजी ने इस वचनिका में ज्ञानी की चाल अर्थात् ज्ञानी की दशा कैसी होती है, वह किसप्रकार मोक्षमार्ग साधता है - इस सम्बन्ध में बहुत सुन्दर विवेचन किया है। उन्होंने इसमें ज्ञानी की अध्यात्मपद्धति की महिमा अनेक प्रकार से समझाकर मोक्षमार्ग का स्वरूप अत्यन्त स्पष्ट किया है।
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