Book Title: Parmarth Vachanika Pravachan
Author(s): Hukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 95
________________ उपसंहार अंत में उपसंहार करते हुए कहते हैं कि - इन बातों का विवरण कहाँ तक लिखें, कहाँ तक कहें? वचनातीत, इन्द्रियातीत, ज्ञानातीत है, इसलिये यह विचार बहुत क्या लिखें? जो ज्ञाता होगा, वह थोड़ा ही लिखा बहुत करके समझेगा। जो अज्ञानी होगा, वह यह चिट्ठी सुनेगा सही; परन्तु समझेगा नहीं। यह वचनिका ज्यों की त्यों सुमतिप्रमाण केवलीवचनानुसारी है। जो इसे सुनेगा, समझेगा, श्रद्धान करेगा - उसे कल्याणकारी है; (यथायोग्य) भाग्यप्रमाण।। ___अहो, ज्ञाता के सामर्थ्य की महिमा कोई अचिन्त्य है। अध्यात्मपद्धतिरूप मोक्षमार्ग अर्थात् अन्तर की शुद्धपरिणति, वह वचन अथवा विकल्प से पकड़ी जा सके - ऐसी नहीं है। ‘स्वभावोऽतर्क-गोचरः' - तर्क से स्वभाव का पार नहीं पाया जा सकता, यह तो स्वानुभवगम्य है। अतः कहते हैं कि चाहे जितना विस्तार से लिखें, फिर भी अन्तर में जो महिमा प्रतिभासित हुई है, वह शब्दों में व्यक्त नहीं की जा सकती। जो जीव ज्ञाता होंगे, पात्र होंगे; वे तो थोड़े में भी अन्तरंग का रहस्य पकड़ लेंगे; किन्तु जो अज्ञानी हैं, विपरीत रुचिवाले हैं; वे तो चाहे जितना स्पष्ट और विस्तृत विवेचन किए जाने पर भी समझेंगे नहीं, अन्तर्दृष्टि की यह बात उन्हें हृदयस्थ होगी नहीं। इस चिट्ठी में परमार्थ का रहस्य भरा है, अतः इसे ‘परमार्थवचनिका' कहा है। यह परमार्थवचनिका केवली के वचन अनुसार है और यथायोग्य मेरी सुमति से लिखी गई है। इस चिट्ठी

Loading...

Page Navigation
1 ... 93 94 95 96 97 98