Book Title: Parmarth Vachanika Pravachan
Author(s): Hukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 89
________________ अध्यात्मपद्धतिरूप स्वाश्रित मोक्षमार्ग यहाँ कोई प्रश्न कर सकता है किं ज्ञानी को भी साधकदशा में परावलम्बी अनेक औदयिकभाव तो होते हैं, ऐसी दशा में वे मोक्षमार्ग क्यों नहीं? इसके समाधान में पण्डित श्री बनारसीदासजी कहते हैं कि :उस ज्ञान को सहकारभूत-निमित्तभूत अनेक प्रकार के औदयिकभाव होते हैं। ज्ञानी उन औदयिकभावों का तमाशगीर है; किन्तु उनका कर्त्ता नहीं है, भोक्ता नहीं है, अवलम्बी नहीं है। इसलिए कोई ऐसा कहे कि सर्वथा अमुक प्रकार का औदयिकभाव हो, तभी अमुक गुणस्थान कहें, तो यह झूठ है; उसने द्रव्य के स्वरूप को सर्वथा प्रकार से जाना नहीं। क्यों? कारण कि अन्य गुणस्थानों की तो बात क्या कहें, केवलियों के भी औदयिक भाव का नानापनाअनेकपना जानना। केवलियों के भी औदयिकभाव एक-सा होता नहीं; किसी केवली के दण्ड-कपाटरूप (समुद्घातरूप) क्रिया का उदय होता है, किसी केवली के वह नहीं होता। इसप्रकार केवलियों में भी उदय की अनेकरूपता है, तो अन्य गुणस्थानों की तो बात क्या कहें? इसलिये औदयिकभावों के भरोसे ज्ञान नहीं है, ज्ञानस्वशक्तिप्रमाण है। स्व-परप्रकाशक ज्ञान की शक्ति, ज्ञायक-प्रमाण ज्ञान, तथा यथानुभवप्रमाण स्वरूपाचरणचारित्र - यह ज्ञाता का सामर्थ्यपना है। .. भूमिकानुसार पराश्रितभाव हों, वह अलग बात है तथा उस

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