Book Title: Parmarth Vachanika Pravachan
Author(s): Hukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 84
________________ हेय-ज्ञेय-उपादेयरूप ज्ञाता की चाल परद्रव्यरूप जो निमित्त है, वह तो हेय-उपादेय नहीं। यहाँ तो रागादिरूप अशुद्धव्यवहार को भी निमित्त की श्रेणी में रखा है, और शुद्धसद्भूतव्यवहार को ही धर्मी के व्यवहार में परिगणित किया है। यहाँ शुभरागरूप जो निमित्त कहा, वह हेय है; क्योंकि वह अपना अशुद्धभाव है, अतः हेय है - ऐसा अभिप्राय जानना। अशुद्धभाव से मोक्षमार्ग नहीं सधता; शुद्धता की वृद्धि अनुसार ही मोक्षमार्ग साधा जाता है। अज्ञानी हेय-ज्ञेय-उपादेय को बराबर पहचानता नहीं, अर्थात् हेयज्ञेय-उपादेय की शक्ति उसमें नहीं हैं। धर्मी जीव हेयरूप परभावों को हेय जानता है, उपादेयरूप अपने शुद्ध द्रव्य-पर्यायों को उपादेय जानता है और ज्ञेयरूप समस्त पदार्थों को ज्ञेय जानता है; अर्थात् हेय-ज्ञेय-उपादेय के जानने की शक्ति उसके प्रगट हुई है। ज्ञाता की यह शक्ति गुणस्थानानुसार बढ़ती जाती है। चौथे गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी कषाय का त्याग है, सम्यक्त्व व स्वरूपाचरणरूप शुद्धि प्रकटी है तथा स्वज्ञेय को जाना है। ___ पाँचवें गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी तथा अप्रत्याख्यान – इन दोनों कषायों का त्याग हुआ है, तथा स्वरूपाचरणचारित्र के उपरान्त देशसंयमचारित्र की शुद्धि प्रकटी है अर्थात् हेय-उपादेय शक्ति बढ़ी है और स्वज्ञेय को पकड़ने की शक्ति भी बढ़ी है। ___छठवें-सातवें गुणस्थान में तीन कषायों के त्याग जितनी शक्ति प्रगट ही और संयमदशा के योग्य शुद्धता बढ़ी है। इसप्रकार वहाँ हेय-उपादेय शक्ति बढ़ी है और स्वज्ञेय को पकड़ने की शक्ति विशेषतया वृद्धिंगत हुई मा बढ़ा है। इसतरह गुणस्थान अनुसार अशुद्धता हेय होती जाती है (छूटती जाती है); शुद्धता उपादेय होती जाती है; इसप्रकार हेय उपादेय शक्ति बढ़ती जाती है और ज्ञान की शक्ति भी बढ़ती जाती है, तथा उस-उस

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