Book Title: Parmarth Vachanika Pravachan
Author(s): Hukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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परमार्थवचनिका प्रवचन व्यवहार का आश्रय करने की बुद्धि नहीं है; अतः उसके मिथ्यात्व नहीं है।
अब संसार-अवस्था में स्थित जीव की तीनों अवस्थाओं का अर्थात् तीनों प्रकार के व्यवहारों का स्वरूप कहते हैं :___ अशुद्धव्यवहार शुभाशुभाचाररूप है, शुद्धाशुद्धव्यवहार शुभोपयोगमिश्रित स्वरूपाचरणरूप है, शुद्धव्यवहार शुद्धस्वरूपाचरणरूप है; परन्तु विशेष इतना कि कोई कहे कि शुद्धस्वरूपाचरण तो सिद्ध में भी विद्यमान है, इसलिये वहाँ भी व्यवहार संज्ञा कहना चाहिये; परन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि संसारावस्था तक व्यवहार कहा जाता है तथा संसारावस्था मिटने पर व्यवहार भी मिटा कहा जाता है; ऐसी यहाँ स्थापना की है। इसप्रकार सिद्ध व्यवहारातीत कहे जाते हैं।
इति व्यवहार विचार समाप्त।
अज्ञानी को शुभाचाररूप तथा अशुभाचाररूप अशुद्धव्यवहार है, उस शुभाशुभ आचरण में शुद्धता नहीं है। मिथ्यादृष्टि को शुभाशुभराग का ही आचरण होता है, शुद्धाचरण नहीं होता। कोई कहे कि शुभभाव शुद्धभाव का कारण है - तो कहते हैं कि नहीं है।
शुभाचरण स्वयं अशुद्ध है - यह बात पण्डित बनारसीदासजी भी ४०० वर्ष पहले स्पष्ट कह गए हैं और जैनसिद्धान्त में अनादि से यही बात सन्त कहते आए हैं। शुभाचरण स्वयं अशुद्ध है, वह शुद्धता का कारण कैसे हो सकता है? इसप्रकार मिथ्यादृष्टि को जो अशुभ या शुभ आचरण है, उसे अशुद्धव्यवहार जानना। .
साधक का मिश्रव्यवहार कैसा है? उसको शुभोपयोगमिश्रित स्वरूपाचरण है, वह शुद्धाशुद्ध मिश्रव्यवहार है। सम्यग्दर्शन होते ही चौथे गुणस्थान से स्वरूपाचरण प्रकट हुआ, वह शुद्धता का अंश है और वहाँ शुभराग भी है, वह अशुद्धता है – इसप्रकार साधक को शुद्धाशुद्धरूप मिश्रव्यवहार है।