Book Title: Parmarth Vachanika Pravachan
Author(s): Hukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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मोक्षमार्ग की सरस बात
मोक्षमार्ग में गमन करते हुए बीच में शुभराग को निमित्तरूप कहा, वह शुभराग सभी मोक्षमार्गियों को एक ही प्रकार का होता है - ऐसा नहीं है; उसमें अनेक प्रकार होते हैं। स्वभाव के परिणाम तो एक सरीखे हों, परन्तु विकार के परिणाम एक सरीखे नहीं होते। द्रव्यस्वभाव तो त्रिकाल एक सरीखा है। अखण्ड-अक्रिय शुद्धद्रव्य वह निश्चय और उसके आश्रय से मोक्षमार्ग साधना - वह व्यवहार। मोक्षमार्ग अर्थात् निश्चय-रत्नत्रय परिणति-वह धर्मी का व्यवहार है और जो व्यवहार-रत्नत्रय (शुभरागरूप) है - वह तो बाह्यनिमित्त रूप है। यहाँ मोक्षमार्गपर्याय को व्यवहार कहा, यह मोक्षमार्ग कहीं रागवाला नहीं है; व्यवहार-रत्नत्रय रागरूप है, वह बन्धपद्धति में है, और निश्चय-रत्नत्रय मोक्षमार्गपद्धति में है। मोक्षमार्ग तथा निश्चय व्यवहार का ऐसा स्वरूप सम्यग्दृष्टि जानता है, मूढ़ - अज्ञानी को उसकी खबर ही कहाँ है? यदि सुनने में भी आ जावे तो यह बात उसके अन्तर में जमती नहीं, बैठती नहीं; वह तो बन्धपद्धति को (राग को) ही साधता हुआ, उसे ही मोक्षमार्ग मानता है। ..
भाई ! राग तो बन्धभाव है, इससे मोक्ष कहाँ से सधेगा? अरे, बन्धभाव और मोक्षभाव के अन्तर का भी जिसे विवेक नहीं, उसे शुद्धात्मा का वीतरागी संवेदन कहाँ से होगा? और स्वानुभव की किरण प्रस्फुटित हुए बिना मोक्षमार्ग का प्रकाश कहाँ से प्रकट होगा? अज्ञानी को स्वानुभव की कणिका भी नहीं, तो फिर मोक्षमार्ग कैसा? स्वानुभव के बिना जितने भी भाव करे वे सब भाव बन्धपद्धति में ही समाविष्ट होते हैं, उनसे बन्धन ही सधता है, वे कोई भी भाव मोक्षमार्ग में नहीं आते; इसलिए मोक्ष नहीं सधता।
जिसप्रकार राजमार्ग की सीधी सड़क के बीच में काँटे-कंकड़ नहीं होते; उसीप्रकार मोक्ष का यह सीधा व स्पष्ट राजमार्ग, उसके बीच में राग की रुचिरूपी काँटे-कंकड़ नहीं हो सकते। सन्तों ने शुद्धपरिणतिरूप राजमार्ग से मोक्ष को साधा है और वही मार्ग जगत को दर्शाया है।