Book Title: Parmarth Vachanika Pravachan
Author(s): Hukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 66
________________ मोक्षमार्ग की सरस बात “सम्यग्दृष्टि बाह्यभाव को बाह्यानिमित्तरूप मानता है, वह निमित्त नानारूप है, एकरूप नहीं है; इसलिए अन्तर्दृष्टि के प्रमाण में मोक्षमार्ग साधता है। सम्यग्ज्ञान और स्वरूपाचरण की कणिका जागने पर मोक्षमार्ग सच्चा है। मोक्षमार्ग को साधना सो व्यवहार और शुद्धद्रव्य अक्रियरूप सो निश्चय। इसप्रकार निश्चय-व्यवहार का स्वरूप सम्यग्दृष्टि जानता है, मूढजीवन जानता है और न मानता है। मूढजीव बन्धपद्धति को साधकर मोक्षमार्ग कहता है, किन्तु ज्ञाता इस बात को नहीं मानता। क्यों? इसलिए कि बन्ध के साधने से बन्ध सधता है, मोक्ष नहीं सधता।" देखो, यह मोक्षमार्ग की सरस बात! धर्मी जीव किसप्रकार से मोक्षमार्ग साधता है और अज्ञानी उसमें क्या भूल करता है - यहाँ यह बात बताई है। धर्मी जीव को सन्देहरहित स्वानुभवपूर्वक दृढ़ निर्णय है कि ज्ञानस्वरूप ही मैं हूँ। मेरा मोक्षमार्ग मेरे ज्ञानस्वरूप के आश्रय से ही है। त्रिकाली शुद्धद्रव्य - वह मेरा निश्चय और उसके आश्रय से प्रकटी हुई शुद्धपर्याय - वह मेरा व्यवहार; इसके अतिरिक्त रागादि परभाव - वे मेरे से बाह्य हैं। देखो, यहाँ व्यवहार किसको कहा? शुद्धद्रव्य के आश्रय द्वारा निर्मलपर्याय से मोक्षमार्ग को साधना, वह धर्मी का व्यवहार है। अज्ञानी को ऐसा व्यवहार होता नहीं और ऐसे व्यवहार को वह जानता भी नहीं। शुद्धद्रव्य, वह निश्चय और शुद्धपरिणति, वह व्यवहार - ऐसा कहकर निश्चय-व्यवहार दोनों को एक ही वस्तु का अंग बताया। यहाँ रागादि

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