Book Title: Parmarth Vachanika Pravachan
Author(s): Hukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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परमार्थवचनिका प्रवचन
गुणस्थान में असंख्य जीव हैं, उनका उदयभाव भिन्न है, फिर भी सभी ज्ञानियों के ज्ञान की जाति तो एक ही है। सभी ज्ञानी जीवों का ज्ञान स्वाश्रय से ही मोक्षमार्ग जानता है; पराश्रय से मोक्षमार्ग माने – ऐसा किसी ज्ञानी का ज्ञान नहीं होता। एक गुणस्थान में सभी ज्ञानियों का
औदयिक भाव तथा ज्ञान का क्षायोपशमिक भाव भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है, तथापि उस उदयभाव के आधार से ज्ञान नहीं है, ज्ञान तो स्वज्ञेयानुसार है। स्व-ज्ञेय का ज्ञान सभी ज्ञानियों को होने का नियम है, परन्तु अमुक उदयभाव होना चाहिये अथवा अमुक बाहर का जानपना होना चाहिए - ऐसा कोई नियम नहीं है; क्योंकि आत्मानुभव ही मोक्षमार्ग है, अन्य कोई मोक्षमार्ग नहीं।
इस सम्बन्ध में पं. राजमलजी पाण्डे ने 'समयसार कलश टीका' में (कलश १३ की टीका) में सरस बात की है। वे कहते हैं :
“आत्मानुभव परद्रव्य की सहायता से रहित है, इसकारण अपने ही में अपने से आत्मा शुद्ध होता है.... जीववस्तु का जो प्रत्यक्षरूप से आस्वाद, उसको आत्मानुभव – ऐसा कहा जाय अथवा ज्ञानानुभव - ऐसा कहा जाय; दोनों में नामभेद हैं, वस्तुभेद नहीं है; अतः ऐसा जानना कि आत्मानुभव मोक्षमार्ग है। इस प्रसंग में और भी संशय होता है कि कोई जानेगा कि द्वादशांगज्ञान कुछ अपूर्वलब्धि है। उसके प्रति समाधान इसप्रकार है कि द्वादशांगज्ञान भी विकल्प है। उसमें भी ऐसा कहा है कि
शुद्धात्मानुभूति मोक्षमार्ग है; इसलिये शुद्धात्मानुभूति के होने पर शास्त्र - पढ़ने की कुछ अटक नहीं है।"
द्वादशांग भी ऐसा ही कहता है कि शुद्धात्मा में प्रवेश करके जो शुद्धात्मानुभूति हुई, वही मोक्षमार्ग है। जहाँ शुद्धात्मानुभूति हुई, यहाँ फिर कोई नियम या टेक नहीं है कि इतने शास्त्र जानना ही चाहिए अथवा इतने शास्त्र जाने, तभी मोक्षमार्ग बने; विशेष शास्त्र ज्ञान हो या न हो, . परन्तु जहाँ शुद्धात्मानुभूति हुई - वहाँ मोक्षमार्ग हो ही गया।