Book Title: Parmarth Vachanika Pravachan
Author(s): Hukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 74
________________ ज्ञाता का मिश्रव्यवहार प्रश्न – ज्ञानी नवधाभक्ति करता है यह तो ठीक, किन्तु वह तप भी करता है क्या? उत्तर – हाँ, ज्ञानी तप भी करता है, किन्तु किस रीति से? अपने शुद्धस्वरूप के सन्मुख होकर वह तप वगैरह क्रियायें करता है - यह ज्ञानी का आचार है। ज्ञानी के ऐसे अन्तरंग-आचार को अज्ञानी पहचानता नहीं है, वह तो मात्र शारीरिक क्रिया को ही देखता है। शुद्धस्वरूप की सन्मुखता से जितनी शुद्धपरिणति हुई, उतना ही तप है – ऐसा धर्मी जानता है।ऐसा तप अज्ञानी के होता नहीं, अतः वह उसे पहचानता भी नहीं। तप वगैरह का शुभराग बाह्यनिमित्त है तथा देह की क्रिया तो आत्मा से अत्यन्त भिन्न वस्तु है – उसके बदले अज्ञानी तो इसको ही मूलवस्तु मान बैठा है और वास्तविक मूलवस्तु को भूल गया है। शुभराग और साथ में भूमिका योग्य शुद्धपरिणति – यह ज्ञानी का आचार है और इसी का नाम मिश्रव्यवहार है। मिश्र का अर्थ है – किंचित् शुद्धता और किंचित् अशुद्धता। उसमें जो अशुद्ध अंश है, वह धर्मी को भी आस्रवबन्ध का कारण है और जो शुद्ध अंश है, वह संवर-निर्जरा का कारण है। इसप्रकार आस्रव-बन्ध और संवर-निर्जरा – यह चारों भाव धर्मी को एकसाथ वर्त्तते हैं। अज्ञानी के मिश्रभाव है नहीं, उसके तो अकेली अशुद्धता ही है तथा सर्वज्ञ के मिश्रभाव नहीं, अकेली शुद्धता ही है। मिश्रभाव साधक दशा में ही होता है और उसमें शुद्ध परिणति के अनुसार वह मोक्षमार्ग को साधता है। __ अहा! धर्मात्मा की यह ‘अध्यात्मकला....अलौकिक है भाई, अलौकिक... यह कहना ही सचमुच साधने जैसा है और इसी का प्रचारप्रसार करने जैसा है, क्योंकि वास्तविक सुख इसी अध्यात्मकला से प्राप्त होता है। अध्यात्म विद्या के अतिरिक्त अन्य लौकिक विद्याओं की कीमत

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