Book Title: Parmarth Vachanika Pravachan
Author(s): Hukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 75
________________ 74 परमार्थवचनिका प्रवचन धर्म में किंचित् भी नहीं। ‘सा विद्या या विमुक्तये' - आत्मा को मोक्ष का कारण न हो, ऐसी विद्या को विद्या कौन कहे? . जिसने अध्यात्म विद्या जानी है, ऐसे ज्ञानी के मिश्रव्यवहार कहा है अर्थात् शुद्धता और अशुद्धता – दोनों ही एकसाथ उसके होती है; परन्तु एक साथ होने पर भी शुद्धता और अशुद्धता एक दूसरे में मिल नहीं जाती। जो अशुद्धता है, वह कहीं शुद्धतारूप नहीं हो जाती और जो शुद्धता है, वह कहीं अशुद्धतारूप (रागादिरूप) नहीं हो जाती। एक साथ होने पर भी दोनों की भिन्न-भिन्न धारा है। इसप्रकार ‘मिश्र' शब्द दोनों का भिन्नत्व सूचक है एकत्व सूचक नहीं। उसमें से जो शुद्धता है, उसके द्वारा धर्मी जीव मोक्षमार्ग को साधता है और जो अशुद्धता है, उसको वह हेय समझता है। -* पण्डित बनारसीदासजीकृत उपादान-निमित्त दोहा गुरु उपदेश निमित्त बिन, उपादान बलहीन । ज्यों नर दजे पाँव बिन, चलवे को आधीन ॥१॥ हौं जाने था एक ही, उपादान को काज । थकै सहाईं पौन बिन, पानी माँहि जहाज ॥२॥ ज्ञान बैन किरिया चरन, दोऊ शिवमय धार । उपादान निह● जहाँ, तहँ निमित्त व्यवहार ॥३॥ उपादान निजगुण जहाँ, तहँ निमित्त पर होय । भेदज्ञान परवान विधि, विरला बूझे कोय ॥४॥ उपादान बल जहँ तहाँ, नहिं निमित्त को दाव। एक चक्र सौ रथ चले, रवि को यहै स्वभाव ॥५॥ सधै वस्तु असहाय जहँ, तहँ निमित्त है कौन । ज्यों जहाज परवाह में, तिरे सहज बिन पौन ॥६॥ उपादान विधि निरवचन, है निमित्त उपदेस । बसै जु जैसे देश में, करे सु तैसे भेस ॥७॥

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