Book Title: Parmarth Vachanika Pravachan
Author(s): Hukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 67
________________ 66 परमार्थवचनिका प्रवचन अन्य भावों को व्यवहार नहीं कहा, किन्तु 'निमित्त' कहकर उनको भिन्न बताया। यह बहुत सरस बात है। यह व्यवहार स्वयं में है और निमित्त पर में है। निश्चय-व्यवहार - दोनों ही एक प्रकार के हैं, एक ज्ञान जाति के हैं और परभावरूप निमित्त तो अनेक प्रकार के हैं। जिसप्रकार बाह्यद्रव्य निमित्त हैं, उसके आधार से मोक्षमार्ग नहीं है; उसीप्रकार अन्दर का शुभराग भी बाह्यद्रव्य के समान निमित्त है, उसके आधार से भी मोक्षमार्ग नहीं है। मोक्षमार्ग में तो जैसे अन्यद्रव्य बाह्य (भिन्न) है, वैसे ही शुभराग भी बाह्य है, भिन्न है। अन्तर्दृष्टि से धर्मी जीव ऐसे मोक्षमार्ग को साधता है। स्वभाव की अन्तर्दृष्टिपूर्वक ही मोक्षमार्ग साधा जाता है, इस अन्तर्दृष्टि के बिना मोक्षमार्ग साधा नहीं जा सकता। ऐसी अन्तर्दृष्टि बिना अज्ञानी शुभराग करें और इस व्यवहार रत्नत्रयादि के शुभराग को ही मोक्षमार्ग मान ले, तथापि वह कहीं मोक्षमार्ग नहीं है - वह तो मात्र भ्रम ही है। सम्यग्दर्शन हो और स्वानुभव की कणिका जागे, तब ही मोक्षमार्ग सच्चा; इसके बिना मोक्षमार्ग नहीं। अरे! सम्यग्दर्शन और स्वानुभव बिना, अकेले शुभराग को मोक्षमार्ग मानना - वह तो वीतराग जैनमार्ग की विराधना है। जिनेन्द्र भगवान ने ऐसा मोक्षमार्ग नहीं कहा; उन्होंने तो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को ही मोक्षमार्ग कहा है, जो स्वानुभवपूर्वक ही होता है। स्वरूपाचरण चारित्र भी चतुर्थ गुणस्थान में स्वानुभवपूर्वक ही प्रकट होता है। स्वानुभव बिना शुभराग करते-करते मोक्षमार्ग प्रकट हो जाये – ऐसा कभी बन नहीं सकता। यहाँ तो कहते हैं कि वह शुभराग बाह्यनिमित्तरूप है। जो जीव अन्तर्दृष्टि से मोक्षमार्ग को साधता है, उसी को वह शुभभाव बाह्यनिमित्त है। अज्ञानी को तो वह शुभभाव मोक्षमार्ग का निमित्त भी नहीं। उपादान में ही जो मोक्षमार्ग को नहीं साधता तो फिर मोक्षमार्ग का निमित्त भी उसको कैसा? अध्यात्मपद्धति ही उसको नहीं है, वह तो मात्र बन्धपद्धति को ही मोक्षमार्ग मानकर उसमें रच-पच रहा है।

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