Book Title: Parmarth Vachanika Pravachan
Author(s): Hukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 44
________________ आगम-अध्यात्मपद्धति की अनन्ता इसप्रकार दोनों की परम्परा विचार करने पर कहीं पार नहीं आता। जीव में भी विकार और कर्म की परम्परा अनादि से चली आ रही है और शुद्धपर्याय का प्रवाह भी जगत में अनादि से ही है। प्रथम सिद्ध या संसारी? – दोनों अनादि से ही है। प्रथम विकार या कर्म? – दोनों की परम्परा अनादि से है। प्रथम द्रव्य या पर्याय? प्रथम सामान्य या विशेष? - दोनों ही अनादि से है; इनमें प्रथम पश्चात् नहीं। यदि 'द्रव्य की प्रथम पर्याय यह है' - ऐसा कहें तो द्रव्य की ही आदि हो जायेगी और द्रव्य अनादि नहीं रहेगा। इसीप्रकार 'द्रव्य की अन्तिम पर्याय यह है' - ऐसा कहें तो वहाँ द्रव्य का ही अन्त हो जायेगा और द्रव्य अनन्त नहीं रहेगा। एक-एक पर्याय सादि-सांत भले हो, किन्तु पर्याय के प्रवाह का आदि-अन्त नहीं है; अर्थात् द्रव्य की यह पर्याय प्रथम और यह अन्तिम – ऐसा आद्यन्तपना नहीं है। द्रव्य में पर्याय का प्रवाह पहले नहीं था और बाद में प्रारम्भ हुआ, अथवा वह प्रवाह कभी अवरुद्ध हो जाये - ऐसा नहीं है। जिसप्रकार द्रव्य अनादि-अनन्त है, उसीप्रकार उसकी पर्याय का प्रवाह भी अनादि-अनन्त वर्त रहा है और वह सब केवलज्ञान में स्पष्ट प्रतिभासित हो रहा है। देखो तो सही! इस जगत की वस्तुस्थिति! अनादि को अनादिरूप से और अनन्त को अनन्तरूप से ज्यों का त्यों केवली भगवान विकल्प बिना ही जानते हैं। प्रश्न - प्रथम पर्याय कौनसी और अन्तिम कौनसी? क्या यह भगवान भी नहीं जानते? उत्तर - वस्तु जैसी है, वैसी भगवान जानते हैं या उससे विपरीत? जो अनादि है उसकी तो आदि है ही नहीं, तो फिर भगवान उसकी आदि कैसे जानेंगे? और जो अनन्त है उसका तो अन्त है ही नहीं, तो भगवान उसका अन्त भी कैसे जानेंगे? यदि भगवान उसके आदि-अन्त को जान लें तो अनादि-अनन्तपना ही कहाँ रहा? भाई! यह तो स्वभाव का अचिन्त्य विषय है। अहो! अनन्तता जिस ज्ञान में समा गई, उस ज्ञान को दिव्य अनन्तता

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