Book Title: Parmarth Vachanika Pravachan
Author(s): Hukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 48
________________ आगम-अध्यात्म के ज्ञाता अब आगम और अध्यात्म में जो अनन्तता कही, उस सम्बन्ध में विशेष स्पष्टता करते हैं और उनके स्वरूप का ज्ञाता कौन है - यह बतलाते हैं। उसमें विशेष इतना कि अध्यात्म का स्वरूप अनन्त है और आगम का स्वरूप अनन्तानन्तरूप है; यथार्थप्रमाण से अध्यात्म एक द्रव्याश्रित और आगम अनन्तानन्त पुद्गलद्रव्याश्रित है। इन दोनों का स्वरूप सर्वथा प्रकार से तो केवलज्ञानगोचर है तथा अंशमात्र मतिश्रुतज्ञानग्राह्य है। अतः सर्व प्रकार से आगामी व अध्यात्मी (आगम-अध्यात्म के ज्ञाता) तो केवलज्ञानी हैं, अंशमात्रज्ञाता मतिश्रुतज्ञानी हैं और देशमात्र ज्ञाता अवधिज्ञानी-मन:पर्ययज्ञानी हैं। ये तीनों (सम्पूर्णज्ञाता, अंशज्ञाता, देशज्ञाता) यथावस्थित ज्ञानप्रमाण न्यूनाधिकरूप जानना। अध्यात्मपद्धति में एक शुद्धात्मा का ही आश्रय है, तथापि उसमें अनन्तगुणों के अनन्त निर्मल परिणाम हैं और एक-एक निर्मल परिणाम में अनन्त सामर्थ्य हैं; अर्थात् अध्यात्मपद्धति में अनन्तता है। आगमपद्धति में विकारपरिणाम के अनन्तप्रकार और उसमें निमित्तरूप कर्म के भी अनन्तप्रकार, उन कर्मों में अनन्तानन्त पुद्गलपरमाणु - इसप्रकार अनन्तानन्त पुद्गलद्रव्यों के आश्रित होने से आगमपद्धति अनन्तानन्तरूप हैं। . .... .

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