Book Title: Parmarth Vachanika Pravachan
Author(s): Hukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
View full book text
________________
60
परमार्थवचनिका प्रवचन
क्या करे? यही जीव जब अपने सत्पुरुषार्थ से सत् को समझकर सत्परिणमन करेगा तो त्रिलोकीनाथ हो जायेगा।
मोक्षमार्ग तो अन्दर का सूक्ष्म अध्यात्मभाव है, वह बाहर से नहीं दिखाई पड़ता। जैसे - दो जीव हों, दोनों बाह्य में दिगम्बर जैन मुनि हों, वस्त्र का ताना भी न हो, मात्र मोर-पींछी व कमण्डलु हो, शुभराग से पंचमहाव्रत दोनों पालते हों, निर्दोष आहार-विहार करते हों, शास्त्रानुसार उपदेश देते हों – यहाँ दोनों मुनियों की इतनी क्रियायें तो बाहर से अज्ञानी को भी दिखाई पड़ती है; परन्तु यह सम्भव है कि अन्तर में उनमें से एक मिथ्यादृष्टि हो और दूसरा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र सहित विराजता हो। वहाँ पहला मुनि तो आगमपद्धति में वर्त्त रहा है, वह मोक्षमार्ग को नहीं साधता और दूसरा मुनि अध्यात्मपद्धति में वर्तते हुए साक्षात् मोक्षमार्ग को साध रहा है। दोनों की बाह्य क्रियायें लगभग एक-सी, किन्तु अन्तर के सूक्ष्म परिणाम में कितना भारी अन्तर है?
देखो! बाहर की क्रिया में अन्तर्गर्भितपने शुद्धस्वभाव अध्यात्म क्रिया एक के तो नहीं वर्तती है, जबकि दूसरे के वर्त रही है। अन्तर की यही अध्यात्म क्रिया वास्तविक मोक्षमार्ग है, उसे अज्ञानी कैसे पहचाने? वह तो दोनों को समान मानकर, बाहर की क्रिया और पंचमहाव्रत के शुभराग को ही मोक्षमार्ग मानेगा; किन्तु भाई! किंचित् अन्तर्दृष्टि से तो देख! मोक्षमार्ग कहीं बाह्य क्रिया में अथवा राग में नहीं है, वह तो अन्तर के शुद्धभावरूप रत्नत्रय में है - इसको पहचाने तभी तुझे मुनि की सच्ची पहचान हो और तभी मुनिवरों के प्रति सच्ची भक्ति जागृत हो तथा मोक्षमार्ग को साधने की सच्ची रीति भी तभी तेरी समझ में आवे। ऐसे ज्ञान बिना मोक्षमार्ग साधा नहीं जा सकता। इसतरह अज्ञानी मोक्षमार्ग क्यों नहीं साध सकता – यह यहाँ अत्यन्त स्पष्टतया बतलाया गया है।
-*