Book Title: Parmarth Vachanika Pravachan
Author(s): Hukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 59
________________ परमार्थवचनिका प्रवचन की बात का उत्साह भी उसको नहीं आता, बल्कि उल्टा उसके प्रति अनादर – अरुचि ही आती है। ___मिथ्यादृष्टि जीव को ऐसे विपरीतभाव के कारण ही अनादिकाल से संसार-परम्परा चली आ रही है, उसका अभाव होकर मोक्षप्राप्ति कैसे हो - उसकी बात यहाँ है। ___ अन्तर के ऐसे मार्ग का आदर करके बार-बार उसका घोलन करना और उसके प्रति अपूर्व उत्साह जागृत करना ही योग्य है। ___अन्तरस्वभाव के अनुभव का कोई अपूर्व ही स्वाद है, वह अज्ञानी के लक्ष्य में नहीं आता; राग से भिन्न कोई तत्त्व उसे दिखाई ही नहीं देता। जबकि अनेक सन्त और विद्वान् धर्मात्मा पूर्व में कह गए हैं और वर्तमान में भी कह रहे हैं कि 'शुभराग मोक्षमार्ग है ही नहीं, तथा निमित्तादि परद्रव्य अकिंचित्कर हैं' - यह सुनकर अपनी विद्वत्ता के अनुचित अभिमान में कोई कहने लगे कि यह तो भावुकता के प्रवाह में उन्होंने खींचकर ऐसा कथन किया है - वास्तविक वस्तुस्वरूप ऐसा नहीं है। तो सुनो भाई! हम भी ऐसा कह सकते हैं कि सन्तों और विद्वान् ज्ञानियों ने जो कहा है, वह तो परम सत्य के प्रवाह में रहकर कथन किया है; तुम ही स्वयं असत् और द्वेष के प्रवाह में खिंचकर उनके ऊपर आक्षेप कर रहे हो, तुम्हारा यह बड़ा दुस्साहस है। प्रश्न :- शास्त्र में अज्ञानी को 'मूढ़' कहा है, क्या यह द्वेष नहीं है? उत्तर :- नहीं भाई, इसमें द्वेष नहीं है; अपितु अज्ञानभाव कितना अहितकर है, यह समझाते हुए उसे छुड़ाने के लिए करुणाभाव है। किसी के घर में काला सर्प पड़ा हो और उसे इसकी खबर न हो; ऐसी स्थिति में दूसरा कोई सज्जन उसको उसके घर में रहने वाले सर्प की भयंकरता बतावे, तो उसमें उस बताने वाले का हेतु क्या है? उसका हेतु तो यह है कि वह मनुष्य उस काले नाग की भयंकरता जानकर, उसे अपने घर से बाहर निकालने का प्रयत्न करे। उसीप्रकार आत्मस्वभाव से विपरीत

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