Book Title: Parmarth Vachanika Pravachan
Author(s): Hukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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आगम-अध्यात्म के ज्ञाता
कभी नहीं हुआ - ऐसा यह भाव है। जगत में तो इन भावों से युक्त जीव अनादि से होते आये हैं; परन्तु इस जीव के लिए यह भाव नया है, अपूर्व है। आगमपद्धतिरूप शुभाशुभभाव तो अनादि से जीव करता आया है, उसमें कोई नवीनता-अपूर्वता नहीं है और वह धर्म का कारण भी नहीं है। शुद्धचेतनापद्धति ही धर्म का कारण है और वह अध्यात्मस्वभाव के आश्रित है, इसप्रकार मोक्षमार्ग और बन्धमार्ग – दोनों की जाति स्पष्ट भिन्न बतलाई है। मोक्षमार्ग तो आत्मा के आश्रित है, जबकि बन्धमार्ग पुद्गल के आश्रित है।
प्रश्न - बन्धभाव करता तो आत्मा है, फिर भी उसे पुद्गलाश्रित क्यों कहा?
उत्तर – यदि जीव निजस्वभाव का आश्रय लेकर परिणमन करे तो बन्धभाव की उत्पत्ति ही न हो। जब वह स्वभाव से बाह्य पर का आश्रय करता है, तभी बन्धभाव की उत्पत्ति होती है, और उस बन्धभाव में निमित्तरूप अनन्त परमाणुरूप कर्म होते हैं; इसलिये उसे पुद्गल-आश्रित कहकर आत्मा के स्वभाव से उसकी भिन्नता समझाई है, किन्तु कोई कर्म उस बन्धभाव को कराते हैं - ऐसा आशय उस कथन का नहीं है। कर्ता होकर उस भावरूप परिणमन तो जीव स्वयं ही करता है; परन्तु वह परिणमन स्वभाव की तरफ का नहीं है, पुद्गल की तरफ का है - इसलिये उसे पुद्गल-आश्रित कहा है। उसके आश्रय से धर्म अथवा मोक्षमार्ग नहीं है। __शुभ का जो मोक्ष का साधन मानता है, उसके मत में तो पुद्गलाश्रित ही मोक्षमार्ग हो गया, क्योंकि शुभभाव पुद्गलाश्रित है, वह कहीं आत्मस्वभावाश्रित नहीं है। मोक्षमार्ग तो आत्मस्वभावाश्रित है और पुद्गलाश्रित होनेवाले भाव तो मोक्षमार्ग का कारण कदापि नहीं हो सकते। धर्म अध्यात्मपद्धतिरूप है। अध्यात्मपद्धति अर्थात् शुद्ध परिणाम