Book Title: Parmarth Vachanika Pravachan
Author(s): Hukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 54
________________ आगम-अध्यात्म के ज्ञाता रखतीं। पर्याय की भी अपनी उसप्रकार की शक्ति है, वह भी सचमुच पर की अपेक्षा नहीं रखती। ऐसे वस्तुस्वभाव को अज्ञानी नहीं जानता, इसलिये वह आगमी भी नहीं और अध्यात्मी भी नहीं; अतः मोक्षमार्ग को नहीं साध सकता। इसप्रकार सम्यग्दृष्टि जीव आगम-अध्यात्म का ज्ञाता है और मोक्षमार्ग का साधक है तथा अज्ञानी जीव आगम-अध्यात्म के स्वरूप को जानता नहीं, अतः मोक्षमार्ग को नहीं साध सकता। ज्ञानी और अज्ञानी में यही अन्तर है। -* / चिन्मूरत दृग्धारी की मोहे ... चिन्मूरत दृग्धारी की मोहे, रीति लगत है अटापटी॥टेक॥ बाहिर नारकि कृत दुख भोगै, अंतर सुखरस गटागटी। रमत अनेक सुरनि संग पै तिस, परनति तैं नित हटाहटी॥१॥ ज्ञानविराग शक्ति नै विधि-फल, भोगत पै विधि घटाघटी। सदन निवासी तदपि उदासी, तातें आस्रव छटाछटी॥२॥ जे भवहेतु अबुध के ते तस, करत बन्ध की झटाझटी। नारक पशु तिय पँढ विकलत्रय, प्रकृतिन की लै कटाकटी॥३॥ संयम धर न सकै पै संयम, धारन की उर चटाचटी। तासु सुयश गुनकी 'दौलतके' लगी, रहै नित रटारटी॥४॥

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