Book Title: Parmarth Vachanika Pravachan
Author(s): Hukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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आगम-अध्यात्मपद्धति की अनन्ता
है, बंध का अधिकार है। यह विकारी भाव आस्रव-बन्धतत्त्व के अधीन है, आत्मा के स्वभाव को उनका स्वामित्व नहीं है; अतः उसमें आत्मा का अधिकार नहीं है। आत्मा का अधिकार तो शुद्धचेतनापरिणति में ही है।
आगमपद्धति तो उदयभावरूप है और अध्यात्मपद्धति उपशम क्षायिक अथवा सम्यक् क्षयोपशमभावरूप है। पुण्य, पाप, आस्रव, बन्ध और अजीवकर्म का समावेश आगमपद्धति में होता है, तथा संवर, निर्जरा, मोक्ष एवं शुद्धजीव का समावेश अध्यात्मपद्धति में होता है। इसप्रकार दोनों पद्धतियाँ एक दूसरे से विलक्षण है, उनका स्वरूप पहचाने तो भेदज्ञान होकर मोक्षमार्ग प्रगट हो जाय; अर्थात् अपने में अध्यात्म की परम्परा विकसित होने लगे और आगम की (कर्म तथा अशुद्धता की) परम्परा मुरझाने लगे इसका नाम धर्म है। ऐसी अध्यात्मपद्धति का प्रारम्भ चतुर्थगुणस्थान से होता है। चतुर्थ से चतुर्दशगुणस्थान तक अध्यात्मपद्धति है; परन्तु भूमिकानुसार जितनी अशुद्धता और कर्म का सम्बन्ध है, उतनी आगमपद्धति है; उसके सर्वथा छूट जाने पर संसार छूट जाता है और सिद्धदशा प्रगट होती है; पश्चात् पुद्गलकर्म के साथ किंचित् भी सम्बन्ध नहीं रहता और संसार की अनादि से प्रवाहित परम्परा का भी
आत्यन्तिक मूलोच्छेद हो जाता है। ____ अज्ञानी आगमपद्धति अर्थात् विकार एवं कर्म के सम्बन्ध को ही जीव का स्वरूप मानता है, जीव के वास्तविक स्वरूप को जानता ही नहीं। अतः उसको तो अध्यात्म अथवा आगम में से किसी भी पद्धति का यथार्थबोध नहीं है; क्योंकि अज्ञानी ने तो शुभरागरूप आगमपद्धति को ही अध्यात्मपद्धति मान लिया है। यह बात आगे विस्तार से आयेगी। आगम और अध्यात्म का सच्चा परिज्ञान सम्यग्ज्ञानी को ही होता है। ___ संसार में आगम और अध्यात्म दोनों पद्धतियाँ त्रिकाल हैं, किन्तु व्यक्तिगत एक जीव को आगमपद्धति अनादि की है और अध्यात्मपद्धतिरूप