Book Title: Parmarth Vachanika Pravachan
Author(s): Hukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 41
________________ ४ आगम-अध्यात्मपद्धति की अनन्तता - 7 आगमपद्धति में संसारमार्ग का और अध्यात्मपद्धति में मोक्षमार्ग का वर्णन है। जिनसे कर्मबन्धन हो, वे सभी भाव आगमपद्धति में समाविष्ट हैं। व्यवहाररत्नत्रय में जो शुभराग है, वह भी आगमपद्धति में गर्भित है । शुद्धचेतनारूप जितने भाव हैं, वे अध्यात्मपद्धति में आते हैं। इसप्रकार दोनों पद्धतियों की धारा परस्पर भिन्न है । इन दोनों पद्धतियों में अनन्तता स्वीकार करना। आत्मा के विकारीभावों में अनन्त प्रकार हैं और उनमें निमित्तरूप कर्म भी अनन्त प्रकार के हैं; आत्मा के निर्मल परिणामों में भी अनन्त गुणों के अनन्त प्रकार हैं; ज्ञानादि गुणों के परिणमन में भी अनन्त प्रकार हैं। इसतरह अशुद्धता और शुद्धता दोनों में ही अनन्तता समझना। जिसप्रकार समयसार में अज्ञानी को पुद्गलकर्म के प्रदेश में स्थित कहा; उसीप्रकार यहाँ अशुद्धपरिणाम को पुद्गलाकार कहा; वह आत्मा के स्वभाव की जाति का नहीं है, इसलिए उसको आत्माकार नहीं कहा। आत्मा के आश्रय से प्रगट होनेवाला परिणाम शुद्ध परिणाम है, वह आत्माकार है; उसमें पुद्गल का सम्बन्ध नहीं है। आत्मा के स्वभाव से सम्बन्धित भाव ही आत्मा को सुख का कारण हो सकता है; पुद्गल से सम्बन्धित भाव कदापि आत्मा को सुख का कारण नहीं हो सकता, अतः वह भाव उपादेय भी नहीं हो सकता। वह भाव तो आगन्तुक है, वह अन्दर से प्रगट नहीं हुआ है और अन्दर रहनेवाला भी नहीं है। वास्तव उस भाव में आत्मा नहीं है, मोक्षमार्ग नहीं है; क्योंकि किसी भी शुभाशुभभाव में आत्मा का अधिकार नहीं है; बल्कि आस्रव का अधिकार

Loading...

Page Navigation
1 ... 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98