Book Title: Parmarth Vachanika Pravachan
Author(s): Hukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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परमार्थवचनिका प्रवचन
लक्ष्य में लेने पर ज्ञान उसमें ही (ज्ञानस्वभाव की अनन्त महिमा में ही) डूब जाता है, अर्थात् ज्ञान स्थिर हो जाता है, निर्विकल्प हो जाता है।
प्रश्न – यदि अनन्त का अन्त भगवान भी नहीं जानते, तब तो उनका ज्ञानसामर्थ्य मर्यादित हो गया? केवलज्ञान में अपरिमित सामर्थ्य सिद्ध नहीं हुई?
उत्तर - नहीं, भगवान यदि अनन्त को अनन्तरूप से न जानते हों तो उनका ज्ञानसामर्थ्य मर्यादित कहा जाय; परन्तु भगवान तो केवलज्ञान की असीम सामर्थ्य से अनन्त को अनन्तरूप से प्रत्यक्ष जानते हैं। भगवान उसका अन्त नहीं जान सके, इसलिये उसे अनन्त कह दिया - ऐसा नहीं है। भगवान ने अनन्त को अनन्तरूप से जाना है, इसलिये उसे अनन्त कहा है। अनन्त को भी सर्वज्ञ जानते हैं, यदि न जानें तो सर्वज्ञ कैसे कहें?
प्रश्न - जब भगवान ने अनन्त को जान लिया तो उनके ज्ञान में उसका अन्त आया या नहीं?
उत्तर - नहीं, भगवान ने अनन्त को अनन्तपने जाना है, अनन्त को अन्तरूप से नहीं जाना। भगवान अनन्त को नहीं जानते – ऐसा भी नहीं और भगवान के जानने से उसका अन्त आ जाता है - ऐसा भी नहीं। अनन्त तो अनन्तपने रहकर ही सर्वज्ञ के ज्ञान में ज्ञात होता है। यदि अनन्त को अन्तरूप से जाने तो वह ज्ञान खोटा; और यदि अनन्त को जान ही न सके तो वह ज्ञान अपूर्ण है।
प्रश्न - जो अनन्त है, वह भला ज्ञान में कैसे जाना जा सकता है?
उत्तर - भाई! ज्ञानसामर्थ्य की अनन्तता अति महान है, इसलिए असीम ज्ञानसामर्थ्य अनन्त के पार में पहुँच जाती है। ज्ञाम का अचिन्त्य सामर्थ्य लक्ष्य में आवे तभी यह बात गले उतर सकती है। विकार में अटका हुआ ज्ञान मर्यादित है, वह अनन्त को प्रत्यक्षरूप नहीं जान सकता; किन्तु निर्विकार ज्ञान में तो बेहद अचिन्त्यशक्ति है। अतः वह अनादि-अनन्तकाल को, अनन्तानन्त आकाश प्रदेशों को साक्षात् जान