Book Title: Parmarth Vachanika Pravachan
Author(s): Hukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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परमार्थवचनिका प्रवचन उत्तर – इसका स्पष्टीकरण हो चुका है कि यहाँ संसार-अवस्थावाले जीवों का ही कथन है, इसलिए संसार-अवस्था तक ही व्यवहार कहा है। चौदहवें गुणस्थान तक असिद्धत्व है तथा कितने ही गुणों का विभाव परिणमन और कर्म संयोग है; अतः वहाँ तक ही व्यवहार माना है। सिद्धदशा में किसीप्रकार का विभाव तथा कर्म संयोग है नहीं, इसलिये संसारातीत ऐसे सिद्ध भगवान को व्यवहारातीत कहा गया है।
बारहवें गुणस्थान में भी यथाख्यात चारित्र है, तथापि वहाँ शुद्धव्यवहार न कहकर मिश्रव्यवहार क्यों कहा? इस सम्बन्धी स्पष्टीकरण भी पहले किया जा चुका है।
इसप्रकार संसारी जीवों में संसार-अवस्थारूप व्यवहार है, उसका स्वरूप तीन भेद करके समझाया; अतः व्यवहारविचार समाप्त हुआ। अब उन संसारी जीवों में आगमरूप तथा अध्यात्मरूप भाव किसप्रकार है - सो कहते हैं।
अब आगम अध्यात्म का स्वरूप कहते हैं :
वस्तु का जो स्वभाव उसको आगम कहते हैं और आत्मा के अधिकार को अध्यात्म कहते हैं; आगम तथा अध्यात्मस्वरूप भाव आत्मद्रव्य के जानना। ये दोनों भाव संसार-अवस्था में त्रिकालवर्ती मानना।
उसका विवरण-आगमरूप कर्मपद्धति, अध्यात्मरूप शुद्धचेतनापद्धति।
उसका विवरण - कर्मपद्धति पौद्गलिकद्रव्यरूप अथवा भावरूप; द्रव्यरूप पुद्गलपरिणाम, भावरूप पुद्गलाकार आत्मा की अशुद्धपरिणतिरूप परिणाम; उन दोनों परिणामों को आगमरूप स्थापित किया।
अब शुद्धचेतनापद्धति शुद्धात्मपरिणाम; वह भी द्रव्यरूप अथवा भावरूप। द्रव्यरूप तो जीवत्वपरिणाम, भावरूप ज्ञान-दर्शन-सुखवीर्य आदि अनन्तगुण परिणाम; वे दोनों अध्यात्मरूप जानना।